वास्तव में ऐसी कोई भूमिका नहीं होती। गुरु की तो भूमिका तभी हो सकती है
जबकि गुरु व्यक्ति की भांति जीता है। यदि वह किसी व्यक्ति की भांति जीता
हो तो ही कोई भूमिका हो सकती है। ये सारे शब्द करना, भूमिका, प्रयास,
सहायता ये सब के सब अहंकार केंद्रित हैं। उनका अर्थ है कि गुरु कुछ कर रहा
है। नहीं, गुरु कुछ भी नहीं कर सकता है, वह है ही नहीं। लेकिन फिर भी उसके
इर्द गिर्द चीजें घटती हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शिष्य रूपातरित नहीं
होता है; वह रूपांतरित होगा। और वह ऐसे ही गुरु के द्वारा रूपातरित हो
सकता है जो कि कुछ भी नहीं कर रहा है। यदि गुरु कुछ कर रहा है तो शिष्य
रूपातरित नहीं हो सकता। गुरु की तरफ से किया हुआ प्रयास यही बतलाता है कि
गुरु अभी गुरु नहीं है। प्रयास का तो प्रश्न ही नहीं है।
गुरु तो होता है एक अनुपस्थिति की भांति, एक ‘नाकुछ’ की हालत में। और
यह तथ्य ही एक विराट शक्ति का कारण हो जाता है। यह तथ्य ही, यह शून्य की
सत्ता ही उसके चारों ओर रहस्यात्मक घटनाओं का कारण हो जाती है। परंतु गुरु
उन्हें कर नहीं रहा है। याद रहे, सरिता तो सागर की ओर बह रही है, किंतु
सरिता नहीं बह रही है, बहने के लिए कुछ कर नहीं रही है। बहाव तो प्राकृतिक
है। यह सरिता के लिए प्राकृतिक है कि बहे। इसमें सरिता कुछ प्रयास नहीं कर
रही है। वृक्ष बढ़ रहा है, वृक्ष उसके लिए कुछ कर नहीं रहा है। कोई प्रयास
नहीं है, कोई केंद्र भी नहीं है, कोई अहंकार भी नहीं है करने के लिए। यह बस
हो रहा है।
जीवन एक घटना है, एक घटना का होना है। और एक व्यक्ति तभी गुरु होता है
जब कि वह इस बोध पर आ गया हो। समग्र ही कर रहा है, और हम व्यर्थ ही परेशान
हो रहे हैं, और हम व्यर्थ ही हस्तक्षेप कर रहे हैं, और हम व्यर्थ ही अपने
भ्रांत केंद्रों को बीच में लाते रहते हैं। भ्रात, क्योंकि किसी भी व्यक्ति
के पास केंद्र नहीं हो सकता।
महान ईसाई संत मिस्टर इकहार्ट ने कहा है कि सिर्फ परमात्मा ही ‘मैं’ कह
सकता है। कोई व्यक्ति वस्तुत: नहीं कह सकता है ‘मैं’। क्योंकि ‘मैं’ का
संबंध समग्र से है। मेरा हाथ नहीं कह सकता है ‘मैं’ क्योंकि हाथ तो मेरा
है। मेरा पांव नहीं कह सकता ‘मैं’ क्योंकि पांव तो मेरा है। मेरा पांव,
मेरा हाथ, मेरी आंखें, वे नहीं कह सकते ‘मैं’ क्योंकि वे सब हिस्से हैं, एक
वृहत इकाई के अंग हैं। तुम भी अपने आप में एक इकाई नहीं हो। तुम एक विराट
समग्रता के हिस्से हो। तुम सिर्फ एक अंश हो, एक आणविक कोष हो समग्र के। तुम
नहीं कह सकते ‘मैं’।
इसीलिए सारे धर्म कहते हैं कि ‘मैं’ ही एकमात्र बाधा है, क्योंकि ‘मैं’
एक सर्वाधिक असत्य चीज है संभवतया। वह तुम्हारा नहीं है। तुम्हें तो यह भी
पता नहीं कि तुम क्यों पैदा हुए, तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें जीवन में
कौन ले आया है। किसी ने तुमसे नहीं पूछा, किसी ने तुम्हारी राय नहीं ली।
तुमने अचानक पाया कि तुम जिंदा हो। फिर कौन है जो तुम्हारे भीतर श्वास लेता
चला जाता है? तुम्हें कुछ भी पता नहीं है।
और फिर अचानक एक दिन तुम नहीं हो जाओगे। कोई तुमसे पूछेगा भी नहीं। यह
तुम्हारा निर्णय नहीं है कि तुम पैदा हो अथवा तुम मरो। लेकिन कुछ होता है,
और होता चला जाता है। कुछ घटना घटित होती है और तुम पैदा हो जाते हो, और
कोई घटना घटती है और तुम ‘न’ हो जाते हो; तुम पुन: खो जाते हो। कैसे कह
सकते हो तुम ‘मैं’? तुम्हारा कोई भी तो निर्णय नहीं होता। कोई निर्णय
तुम्हारा नहीं होता। ‘मैं’ तो सिर्फ परमात्मा का ही हो सकता है।
केनोउपनिषद
ओशो
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