मैंने सुना है एक आदमी, था तो भारतीय, लेकिन जीवनभर रहा जर्मनी में। जब
मरा तो नर्क के द्वार पर उससे पूछा गया कि तुम किस नर्क में जाना चाहते हो?
क्योंकि तुम्हारे संबंध है। पैदा तुम भारत में हुए, रहे तुम जर्मनी में,
तो तुम्हारे लिए विकल्प है। तुम चुन सकते हो : या तो जर्मनों का नर्क या
भारतीयों का नर्क।
आदमी सोच-विचार वाला था, उसने पूछा कि दोनों में फर्क क्या है? उन्होंने
कहा : फर्क… फर्क तो कुछ भी नहीं है। दानों में आग में जलाये जाओगे। दोनों
में मार पड़ेगी। दोनों में पीटे -कुटे जाओगे। दोनों में सताये जाओगे। सब एक
-सा ही है। कोई फर्क नहीं है।
उसने पूछा : फिर चुनाव के लिए क्यों पूछते हो? उसने कहा : तुम मेरी सलाह
अगर लेते हो, तो थोड़े -से फर्क हैं। जैसे भारतीय नर्क में किसी दिन माचिस
ही नहीं मिलती। माचिस भी तो लकड़ी नहीं जलती… गीली लकड़ी। मगर जर्मन नर्क में
ऐसी भूल-चूक नहीं होती। भारतीय नर्क में मारने वाले सो जाते हैं, झपकी
खाते हैं। जर्मन नर्क में ऐसा नहीं होता। भारतीय नर्क में हर आये दिन
छुट्टी होती है -कभी रामनवमी, कभी कृष्णाष्टमी, कभी महावीर जयंती, की गांधी
जयंती… कोई अंत ही नहीं है। तीन सौ पैंसठ दिन में करीब -करीब आधे दिन
छुट्टियों में निकल जाते हैं। जर्मन नर्क सिर्फ रविवार को बंद रहता है, मगर
रविवार को जर्मन नर्क के जो कर्मचारी हैं, वे अभ्यास करते हैं; छोड़ते
नहीं। तुम्हारी मर्जी, जो भी चुनना हो।
उसने कहा कि मुझे एकदम भारतीय नर्क में भेजो। तो तुम भी अगर
जाओ-कभी-न-कभी जाओगे ही। तो थोड़ा सोच-समझ लेना। हर नर्क हर स्वर्ग की अपनी
सुविधाएं – असुविधाएं हैं। और लोग छोटे -छोटे त्याग किये बैठे हैं और सोच
रहे हैं बड़ी। बड़ी आशाएं कि उर्वशी थाल सजाये खड़ी होगी। थोड़े दिन की और है
मुसीबत, गुजार लो; थोड़े दिन और पानी छानकर पी लो-फिर तो उर्वशी ही उर्वशी।
थोड़े दिन और तमाखू न खाओ।
बैकुंठ में तो तबाखू चलती है। पुराने शास्त्रों में लिखा है ताम्बुल-चर्वण।
और पान इत्यादि भी चलते हैं। विष्णु भगवान बैठे रहते हैं और लक्ष्मी जी
पान बनाती हैं।
तुम सोच लेना।
और इसी तरह के लोग हिसाब लगा रहे हैं। इसलिए अंधों के पीछे चलना सुगम हो
जाता है, क्योंकि अंधे तुम्हें सब तरह की सुविधाएं देते हैं। किसी सदगुरु
के साथ चलोगे तो कठिनाई होगी, क्योंकि वह असली जीवन को बदलने की चेष्टा
करता है; ये नकली बाहर की बातों को बदलने की नहीं। तुम्हारी चेतना को बदलने
की चेष्टा करता है। तुम्हारे व्यवहार को नहीं, तुम्हारे चरित्र को नहीं
छूता; तुम्हारे अंतस्तल को रूपातरित करता है।
क्यूं पकड़ो हो डालिया, नहचै पकड़ो पेड़।
‘गउवां सेती निसतिरो, के तारैली भेड़।।
कहीं भेड़ों को पकड़कर कोई पार हुआ है! ऐसे ही डूबोगे, बुरे डूबोगे। समय
रहते जाग जाओ। किसी तैराक का साथ करो। किसी उसको, जो उस पार हो आया हो।
किसी उसको जो उस पार से जाकर लौटा हो और बुलाने आया हो और पुकार देने आया
हो- और है कोई लेनेहारा?
साधां में अधवेसरा, व्यू घासां में लांप।
जल बिन जोड़े क्यूं बड़ो पगां बिलूमै कांप।।
साधुओं में ऐसे बहुत से हैं-अधवेसरा, आधे – आधे, अधूरे, कुनकुने; इनसे
बचना। ये न यहां के न वहां के। न घर के न घाट के। ये धोबी के गधे हैं! ये न
संसार के हैं और न परमात्मा के; ये बीच में अटक गये हैं। ये त्रिशंकु हैं।
साधां में अधवेसरा, ज्यू घासी में लीप। घास में ऐसी घास भी उगती है, जिसको
जानवर भी नहीं खाते। वह कहने भर की घास है। तुम भैंस को छोड़ दो घास में,
तुम चकित होओगे : वह कुछ घास खाती है, कुछ छोड़ देती है। वह जो भैंस छोड़
देती है घास, वह भी घास जैसा ही मालूम पड़ता है, लेकिन घास है नहीं। सिर्फ
आभास भर है। ऐसे ही कुछ साधु हैं, जो साधु जैसे मालूम पड़ते हैं लेकिन साधु
नहीं हैं। अभी भीतर ज्योति नहीं जली है; उसके बिना कैसी साधुता? अभी वे भी
तुम्हारी ही तरह अंधेरे में टटोल रहे हैं। तुम दो बार भोजन करते हो, वे एक
बार भोजन करते हैं। चलो इतना फर्क माना। तुम सिनेमा देख आते हो, वे सिनेमा
नहीं देखते; मगर आंख बंद करके वे जो देखते हैं वह सिनेमा से बदतर है। तुम
जरा साधुओं से पूछो तो कि जब आंख बंद करके बैठते हो तो क्या देखते हो? अगर
वे ईमानदार हों, जरा भी ईमानदार हों, तो वे वही फिल्में देखते हैं जो तुम
फिल्मों में बैठ कर देखते हो, कुछ फर्क नहीं है वही कहानियां!
हंसा तो मोती चुने
ओशो
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