मेरा सारा जोर स्वाभाविक होने पर है। जितने ज्यादा तुम स्वाभाविक हो
उतने ही तुम परमात्मा के अधिक निकट होगे। स्वभाव, प्रकृति, परमात्मा के
विरुद्ध नहीं है। प्रकृति परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है, उसी का प्रगट रूप
है। परंतु तुम्हें बार बार यह सिखाया गया है कि प्रकृति परमात्मा के
विरुद्ध है। अत: प्रकृति को दबाओं ताकि तुम परमात्मा के निकट हो सकी।
इस तरह तुम कभी न पहुंच सकोगे क्योंकि प्रकृति परमात्मा के विरुद्ध नहीं
है। यदि वह विरुद्ध हो तो वह कभी हो ही न सकेगी। फिर वह कैसे हो सकेगी?
कोई भी चीज अस्तित्व में ही कैसे होगी परमात्मा के विरुद्ध होकर? वह तो
समग्र का अंग है, खेल का हिस्सा है। उसके खिलाफ मत हो। और तुम हो भी कैसे
सकते हो? तुम भी प्रकृति के ही हिस्से हो। सिर्फ तुम अपने को धोखा देते रह
सकते हो। बस इतना ही तुम कर सकते हो।
उसे प्राकृतिक ढंग से बहने दो। उसे प्राकृतिक लयबद्धता प्राप्त करने दो,
और धीरे— धीरे वह स्थिर हो जाएगी। और जब वह स्थिर हो जाएगी तो अचानक तुम
पाओगे कि तुम परमात्मा में ही खड़े हो। जब तुम प्रकृति से संघर्षरत नहीं
होगे, सिर्फ स्वीकार होगा, तो तुम प्रकृति के पार चले गए। लेकिन यह प्रकृति
के पार चले जाना प्रकृति के विरुद्ध चले जाना नहीं है। यह वस्तुत: उसी में
से होकर विकास को प्राप्त होना है। तुम ब्रह्मचर्य पर पहुंचोगे। एक सुंदर
ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होगे परंतु यौन से लड़कर नहीं। कोई भी कभी लड़कर नहीं
पहुंचा। कोई कभी पहुंच भी नहीं सकता।
केनोउपनिषद
ओशो
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