विचार की जो धाराएं हमारे चित्त पर दौड़ती हैं, कभी उनके मात्र निरीक्षक
हो जाएं। जैसे कोई नदी के किनारे बैठा हो और नदी की भागती हुई धार को देखे;
सिर्फ किनारे बैठा हो और देखे। या जैसे कोई जंगल में बैठा हो, पक्षियों की
उड़ती हुई कतार को देखे; सिर्फ बैठा हो और देखे। या कोई वर्षा के आकाश को
देखे और बादलों की दौड़ती हुई, भागती पंक्तियों को देखे। वैसे ही अपने मन के
आकाश में विचार के दौड़ते हुए मेघों को, विचार के उड़ते हुए पक्षियों को,
विचार की बहती हुई नदी को चुपचाप तट पर खड़े होकर देखना है। जैसे हम किनारे
पर बैठे हैं और विचार को देख रहे हैं। विचार को उन्मुक्त छोड़ दें, विचार को
बहने दें और भागने दें और दौड़ने दें और आप चुप बैठकर देखें। आप कुछ भी न
करें। कोई छेड़छाड़ न करें। कोई रुकाव न डालें। कोई दमन न करें। कोई विचार
आता हो, तो रोकें न; न आता हो, तो लाने की चेष्टा न करें। आप मात्र
निरीक्षक हों।
उस मात्र निरीक्षण में दिखायी पड़ता है, अनुभव होता है, विचार अलग हैं और
मैं अलग हूं। क्योंकि बोध होता है कि जो विचारों को देख रहा है, वह
विचारों से पृथक होगा, अलग होगा, भिन्न होगा। और जब यह बोध होता है, तो
अदभुत शांति घनी होने लगती है। क्योंकि तब कोई चिंता आपकी नहीं है। आप
चिंताओं के बीच में हो सकते हैं, चिंता आपकी नहीं है। आप समस्याओं के बीच
में हो सकते हैं, समस्या आपकी नहीं है।
आप विचारों से घिरे हो सकते हैं,
विचार आप नहीं हैं। विचारने से कोई बुद्ध नहीं हुआ, हो सकता है तुम विचारने में किसी की नक़ल कर सको, बहुत आसान है, लेकिन उसकी व्यर्थता को देखो वह आप के कोई काम का नहीं है।
और अगर यह खयाल आ जाए कि मैं विचार नहीं हूं, तो विचारों के प्राण टूटने
शुरू हो जाते हैं, विचार निर्जीव होने लगते हैं। विचारों की शक्ति इसमें
है कि हम यह समझें कि वे हमारे हैं। जब आप किसी से विवाद करने पर उतर जाते
हैं, तो आप कहते हैं, ‘मेरा विचार!’ कोई विचार आपका नहीं है। सब विचार अन्य
हैं और भिन्न हैं, आपसे अलग हैं। उनका निरीक्षण।
ओशो
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