एक छोटे गांव में ऐसी ही घटना घटी कि एक ईसाई पादरी आया। आदिवासियों का
गांव है बस्तर में। और आदिवासियों को समझाना हो तो आदिवासियों के ढंग से
समझाया जा सकता है। क्योंकि बहुत सिद्धांत की बात करने से तो कोई सार नहीं।
न शास्त्र वे जानते हैं, न शब्द वे बहुत समझ सकते हैं। तो उसने एक तरकीब
निकाली और उसने कई लोगों को ईसाई बना लिया। उसने तरकीब यह निकाली कि वह
गांव में जाता, थोड़ा बहुत धर्म की बात करता, भजन कीर्तन करता और फिर दो
मूर्तियां निकालता अपने झोले से एक क्राइस्ट की और एक राम की, और दोनों को
पानी में डालता। एक बालटी भरवा लेता और दोनों को पानी में डालता, और कहता
कि देखो, जो खुद बचता है वही तुम्हें बचा सकता है; जो खुद ही डूब जाए, वह
तुम्हें क्या बचाएगा! राम की मूर्ति लोहे की बना ली थी और जीसस की मूर्ति
लकड़ी की बना ली थी। तो जीसस तो तैरते और राम एकदम डुबकी मार जाते। गांव के
आदिवासी समझे कि बात तो बिलकुल सच्ची है, तर्क साफ है क्योंकि इन राम के
पीछे हम फंसे हैं, और ये खुद ही डूब रहे हैं! उसने इस कारण कई लोगों को
ईसाई बना लिया।
एक हिंदू संन्यासी गांव में मेहमान था। उसी संन्यासी ने ही पूरी कहानी
बताई। वह बड़ा योग्य आदमी था। गांव के लोगों ने उससे भी कहा कि यह तो बड़ा
रहस्य है, साफ है मामला। लेकिन लोग ईसाई हो गए। वह भीतर गया देखने। उसने
समझ लिया कि मामला क्या है। भरी सभा में जब लोग प्रभावित हुए तो उसने कहा
कि ऐसा काम किया जाए; पानी तो ठीक है, आग जलवाई जाए जो बच जाए, वही तुम्हें
बचाएगा। गांव के लोगों ने कहा, “यह तो बिलकुल साफ मामला है। असली चीज तो
आग है; पानी में क्या रखा है? वह ईसाई पादरी बड़ी मुश्किल में पड़ गया। उसने
बड़ी कोशिश की कि बच निकले; लेकिन गांव के लोगों ने पकड़ लिया। उन्होंने कहा,
“कहां जाते हो? यह तो परीक्षा होनी ही चाहिए, क्योंकि अग्नि परीक्षा तो
शास्त्रों में भी कही है। जल परीक्षा कभी सुनी?’
वे जीसस जल गए!
संप्रदाय जीते हैं क्षुद्र तर्कों पर, बहुत छोटे तर्कों पर। बहुत
छोटी छोटी घृणा को जमा जमा कर धीरे धीरे वे अंबार खड़ा करते हैं। एक एक ईंट
घृणा की है, विद्वेष की है; दूसरे की निंदा की है; दूसरे को छोटा, बुरा
बताने की है। प्रेम तो कहीं पता भी नहीं चलता। और जो घृणा फैला रहे हैं, वे
प्रार्थना कैसे करते होंगे? उनकी प्रार्थना में भी वही घृणा होगी।
प्रेम फैलाओ तो ही तुम्हारी प्रार्थना में प्रेम आएगा। क्योंकि जो प्रेम
तुम्हारे जीवन का हिस्सा न बन जाए, वह तुम्हारी प्रार्थना में कभी
आविर्भूत न होगा। तुमसे ही तो प्रार्थना उठेगी।
सुनो भई साधो
ओशो
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