आध्यात्मिक चेतना को उपलब्ध करने के लिए कोई शरीर और मन का
अतिक्रमण कैसे कर सकता है?
पहली बात तो यह समझ लेनी है कि शरीर और मन के बीच का विभाजन आत्यंतिक रूप से झूठ है। अगर तुम इस विभाजन से आरंभ करते हो तो कहीं नहीं पहुंचोगे; क्योंकि झूठा आरंभ कहीं नहीं ले जाता है। इससे कुछ नहीं आ सकता है क्योंकि प्रत्येक कदम के विकसित होने का अपना गणित है। दूसरा कदम पहले से आएगा, और तीसरा दूसरे से, और ऐसा ही होता चला जाएगा। यह एक तार्किक श्रृंखला है। इसलिए जिस पल तुम पहला कदम उठाते हो तुमने एक प्रकार से सब-कुछ चुन लिया है।
पहला कदम अंतिम से अधिक महत्वपूर्ण है आरंभ अंत की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि अंत तो बस एक परिणाम है, एक विकास है। लेकिन हम सदा अंत के बारे में उत्सुक होते हैं आरंभ के बारे में कभी नहीं। हम सदा साध्य में रुचि रखते हैं, साधन में कभी नहीं। अंत हमारे लिए इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि हम बीज के, प्रारंभ के पथ से ही चूक जाते हैं। तब हम सपने देखते रह सकते हैं लेकिन हम वास्तविक पर कभी नहीं पहुंचेंगे।
किसी खोजी के लिए विभाजित व्यक्ति की यह धारणा, दोहरे अस्तित्व की यह धारणा--शरीर और मन का द्वैत भौतिक और आध्यात्मिक का द्वैत--एक झूठा कदम है। अस्तित्व अविभाजित है सारे विभाजन बस मानसिक हैं। मन के देखने का वह तरीका, जिससे वह वस्तुओं को देखता है द्वैत निर्मित करता है। यह मन का कारागृह है जो बांट देता है।
मन और कुछ कर भी नहीं सकता। दो विरोधाभासों के एक होने का दो विपरीत ध्रुवीयताओं के एक होने का अनुमान लगाना भी मन के लिए कठिन है। मन के लिए यह एक अनिवार्यता है बाध्यता है कि वह तर्क संगत रहे। वह यह कल्पना ही नहीं कर सकता कि प्रकाश और अंधकार कैसे एक हो सकते हैं? यह बात तो अतर्क्य है विरोधाभासी है।
मन को विरोध निर्मित करने पड़ते हैं ईश्वर और शैतान, जीवन और मृत्यु, प्रेम और घृणा। तुम प्रेम और घृणा की एक ही ऊर्जा के रूप में कल्पना भी कैसे कर सकते हो? मन के लिए यह कठिन है। इसलिए मन बांट देता है। तब यह कठिनाई नहीं रहती है। घृणा प्रेम के विपरीत है और प्रेम घृणा का विलोम है। अब तुम तर्क संगत हो सकते हो और मन आराम में हो सकता है। इसलिए विभाजन मन की सुविधा के लिए है--यह सत्य नहीं है वास्तविकता नहीं है।
अपने आप को दो में बांट लेना सुविधाजनक रहता है शरीर और तुम। लेकिन जिस पल तुमने बांटा, तुमने एक गलत कदम उठा लिया। जब तक कि तुम वापस न लौट आओ और पहले कदम को न बदलो, तुम अनेक जन्मों में भटकते रह सकते हो, और इससे कुछ भी नहीं होगा क्योंकि एक झूठा कदम और झूठे कदमों की ओर ले जाता है।
इसलिए सही आरंभ से शुरू करो। स्मरण रखो कि तुम और तुम्हारा शरीर दो नहीं हैं। इन का दो होना बस एक सुविधादायक अवधारणा है। जहां तक अस्तित्व का संबंध है एक होना पर्याप्त है।
अपने आप को दो में बांटना एक धोखा है। वस्तुत: तुम सदा अनुभव करते हो कि तुम एक हो लेकिन अगर एक बार तुमने इस बारे में सोचना शुरू कर दिया तो समस्या उठती है। अगर तुम्हारे शरीर में चोट लग जाए तो उस क्षण में तुम कभी यह अनुभव नहीं करते कि तुम दो हो। तुम्हें महसूस होता है कि तुम शरीर के साथ एक हो। सिर्फ बाद में जब तुम इसके बारे में सोचना आरंभ करते हो, तब तुम बांटते हो।
वर्तमान के क्षण में कोई विभाजन नहीं है। उदाहरण के लिए अगर कोई तुम्हारे सीने पर छुरा रख दे ठीक उसी क्षण में वहां पर कोई विभाजन नहीं होता। तुम ऐसा नहीं सोचते हो कि वह तुम्हारे शरीर को मारने जा रहा है तुम सोचते हो कि वह तुम्हें मारने जा रहा है। सिर्फ बाद में जब यह घटना स्मृति का हिस्सा बन चुकी होती है तुम बांट सकते हो। अब तुम चीजों को देख सकते हो उनके बारे में सोच सकते हो। तुम कह सकते हो कि वह आदमी तुम्हारे शरीर को मारने जा रहा था। किंतु उस क्षण में तुम यह नहीं कह सकते थे।
जब भी तुम अनुभव करो तुम्हें एकता अनुभव होती है। जब भी तुम सोचते हो, तुम बांटना शुरू कर देते हो। तब शत्रुता निर्मित होती है। अगर तुम शरीर नहीं हो तो एक खास तरह का संघर्ष विकसित होता है। प्रश्न उठता है, कौन मालिक है? शरीर या मैं? तब अहंकार आहत अनुभव करने लगता है। तुम शरीर का दमन करने लगते हो। और जब तुम शरीर का दमन करते हो तो तुम अपने आप का दमन कर रहे हो। जब तुम शरीर के साथ संघर्ष करते हो, तो तुम अपने आप से संघर्ष कर रहे हो। इस तरह से बहुत सा संशय निर्मित हो जाता है। यह आत्मघाती बन जाता है।
अगर तुम प्रयास भी करो तो भी तुम अपने शरीर को वास्तविक रूप से दबा नहीं सकते। मैं अपने बाए हाथ को अपने दाएं हाथ से कैसे दबा सकता हूं। वे दो की भांति दिखते हैं, पर दोनों में एक ही ऊर्जा बहती है। अगर वास्तव में वे दो हों तब दमन संभव हो सकता था--और केवल दमन ही नहीं बल्कि पर्णू विनाश भी संभव होता--किंतु अगर दोनों में एक ही ऊर्जा बह रही है तो मैं अपने बाएं हाथ का दमन कैसे कर सकता हूं। यह बस एक बनाया हुआ विश्वास है। मैं अपने दाएं हाथ को बायां हाथ नीचे गिराने दे सकता हूं और मैं ऐसा दिखावा कर सकता हूं कि मेरा दायां हाथ जीत गया है, पर अगले क्षण ही मैं अपने बाएं हाथ को ऊपर उठा सकता हूं और वहां उसे रोकने वाला कोई न होगा। यही वह खेल है जो हम खेला करते हैं। यह चलता रहता है। किसी समय तुम कामवासना को नीचे धकेल देते हो और किसी समय कामवासना तुम्हें नीचे धकेल देती है।
यह एक दुष्चक्र बन जाता है। तुम कभी कामवासना का दमन नहीं कर
सकते हो। तुम इसका रूपांतरण कर सकते हो,
किंतु तुम इसका दमन कभी नहीं कर सकते।
तुम और तुम्हारे शरीर के बीच विभाजन से आरंभ करना दमन की ओर ले जाता है। इसलिए अगर तुम रूपांतरण चाहते हो, तो तुम्हें विभाजन से आरंभ नहीं करना चाहिए। रूपांतरण सिर्फ पूर्ण को पूर्ण की भांति समझने से ही आ सकता है। पूर्ण को विभाजित खंडों में समझने की गलतफहमी से दमन पैदा होता है। अगर मैं जानता हूं कि दोनों हाथ मेरे हैं, तो एक को दबाने का प्रयास असंगत है। तब यह संघर्ष अर्थहीन हो जाता है क्योंकि कौन किसको दबाएगा कौन किससे लड़ेगा? अगर तुम अपने शरीर के साथ विश्रांति अनुभव कर सको तब तुम पहला कदम उठा सकते हो जो ठीक कदम होगा। तब विभाजन दमन नहीं आएगा।
बुद्धत्व का मनोविज्ञान
ओशो
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