स्वामी रामतीर्थ अमरीका से वापस लौटे। सारे यूरोप में, सारे अमरीका में उन्होंने
बड़ी तत्वदर्शन की चर्चा की। उनका बड़ा प्रभाव हुआ। लाखों-करोड़ों लोगों ने उन्हें
पूजा और माना। फिर वे भारत वापस लौट आए। फिर वे कुछ दिन तक हिमालय में थे। उनकी
पत्नी उनसे मिलने गई, तो स्वामी राम ने मिलने से इनकार कर
दिया। उन्होंने कहा, मैं नहीं मिलूंगा। तो उनके पास सरदार
पूर्णसिंह नाम के एक व्यक्ति रहते थे, वे बहुत हैरान हुए।
उन्होंने कहा कि मैंने आपको कभी किसी स्त्री को इनकार करते नहीं देखा। यूरोप में,
अमरीका में हजारों स्त्रियां आपसे मिलीं और आपने कभी किसी को इनकार
नहीं किया। इस स्त्री को इनकार क्यों करते हैं? क्या किसी तल
पर अब भी इसे अपनी पत्नी नहीं मान रहे हैं? छोड़ कर चले गए थे
उसे। लेकिन अपनी पत्नी से मिलने को इनकार कर रहे हैं। जरूर किसी तल पर वे मान रहे
हैं कि वह पत्नी उनकी है। अन्यथा और स्त्रियां आती हैं, उन्हें
मिलने से इनकार उन्होंने कभी किया नहीं।
जब तक आपका विचार पर ममत्व है, तब तक आप इस भ्रम में मत रहें कि आप कुछ भी छोड़
सकते हैं। क्योंकि असली पकड़ और संपत्ति तो केवल विचार की है, बाकी सारी चीजें बाहर हैं, उनकी कोई पकड़ नहीं है।
पकड़ तो सिर्फ विचार की है। तो वह जो विचार का घेरा है, वह जो
विचार की संपत्ति है, जिससे आपको लगता है कि मैं कुछ जानता
हूं। विचारणीय है, क्या उसमें कुछ भी आपका है?
एक बहुत बड़ा साधु था। कुछ ही दिन पहले उसके आश्रम में एक युवा
संन्यासी आया। दो-चार-दस दिन तक उस संन्यासी की बातें उसने सुनीं। वह जो वृद्ध
साधु था, उसकी
बातें बड़ी थोड़ी सी थीं। और युवा संन्यासी थक गया उन्हीं-उन्हीं बातों को बार-बार
सुन कर और उसने सोचा, इस आश्रम को छोडूं, यहां तो सीखने को कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और तभी एक और संन्यासी का आगमन
आश्रम में हुआ। रात्रि को उस संन्यासी ने जो चर्चा की, वह
बहुत अदभुत थी, बहुत गंभीर थी, बहुत
सूक्ष्म थी, बहुत गहरी थी। यह युवा संन्यासी उसकी बातें सुना,
उस आगंतुक संन्यासी की, अतिथि की, और इसको लगा कि गुरु हो तो ऐसा हो, जिसके पास ऐसा
ज्ञान है, इतना गंभीर और गहरा। और एक यह वृद्ध संन्यासी है,
जिसके आश्रम में मैं रुका हूं आकर। इसको तो थोड़ी सी बातें आती हैं,
और कुछ आता नहीं। फिर उसे यह भी लगा कि यह वृद्ध संन्यासी इस युवा
संन्यासी की बातें सुन कर मन में कैसा दुखी नहीं होता होगा? कैसा
इसे नहीं अपमान अनुभव होता होगा? यह तो कुछ भी नहीं जानता।
जीवन इसने व्यर्थ गंवा दिया है।
उस नये आए साधु ने अपनी बात पूरी की और गौरव से सबकी तरफ देखा
कि उन पर क्या प्रभाव पड़ा। उसने वृद्ध साधु की तरफ भी देखा। वह वृद्ध साधु बोला कि
मैं दो घंटे से बहुत स्मृतिपूर्वक सुन रहा हूं, लेकिन मैं देखता हूं कि तुम तो बोलते ही नहीं।
उस संन्यासी ने कहा,
आप पागल तो नहीं हैं? दो घंटे से मैं ही बोल
रहा हूं, और तो सब लोग चुप हैं। और आप कहते हैं कि दो घंटे
से आप सुन रहे हैं और मैं बोलता नहीं हूं!
उस साधु ने कहा,
निश्चित ही मैंने बहुत गौर से सुना, तुम कुछ
भी नहीं बोले। जो भी तुम बोले, सब दूसरों का है। कोई विचार
तुम्हारी अपनी अनुभूति से नहीं है। और इसलिए मैं कहता हूं कि तुम नहीं बोले। दूसरे
तुम्हारे भीतर से बोले, लेकिन तुम नहीं बोले।
विचार की मुक्ति के लिए और विचार की स्वतंत्रता के लिए और विवेक
के जागरण के लिए, पहली बात, पहला बोध, विचार कोई
भी मेरा नहीं है। कोई भी विचार मेरा नहीं है। वह जो मेरे का संबंध है विचार से,
उसे देख लें, वह आपका सच नहीं है, वह झूठ है। कोई विचार मेरा नहीं है। वह जो तादात्म्य है विचार से, उसे तोड़ दें।
हम हर विचार से अपना तादात्म्य कर लेते हैं। हम कहते हैं: जैन
धर्म मेरा; हिंदू
धर्म मेरा; राम मेरे; कृष्ण मेरे;
क्राइस्ट मेरे; हम तादात्म्य कर लेते हैं। हम
अपने मैं से उनको जोड़ लेते हैं। बड़ा आश्चर्य है!
कोई विचार आपका नहीं है। कोई धर्म आपका नहीं है। यह स्मरणपूर्वक
अगर प्रज्ञा में प्रतिष्ठित हो जाए यह बोध कि कोई विचार मेरा नहीं है। आप सारे
विचारों को फैला कर देख लें, वे कहीं से आए होंगे। जैसे वृक्ष पर आते हैं पक्षी और संध्या बसेरा करते
हैं, ऐसे ही विचार मन में आते और निवास करते हैं। आप केवल एक
धर्मशाला की तरह हैं, जहां लोग ठहरते हैं और चले जाते हैं।
अमृत की दशा
ओशो
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