एक बहुत बड़ा दार्शनिक दूसरे महायुद्ध में सैनिकों की कमी के
कारण युद्ध के मैदान पर भेजा गया। वह भरती कर लिया गया। स्वैच्छिक बात न थी; जबरस्ती भरती कर लिया गया।
लेकिन दार्शनिक बड़ा था और जिंदगी सोचने-विचारने में ही बिताई थी; कभी कुछ किया न था; सिर्फ सोचा था।
सोचने का जगत ही अलग है। सोचो तो मन बिल्कुल राजी रहता है, क्योंकि करते नहीं तो कोई
पछतावे का सवाल नहीं है। चाहे पाप सोचो तो भी कोई हर्ज नहीं है, किसी को नुकसान नहीं पहुंचता; चाहे पुण्य सोचो तो भी
कोई हर्ज नहीं है, किसी को लाभ नहीं पहुंचता। तुम बैठे रहते
हो अपनी जगह। कृत्य के कारण कुछ होता है; सोच के कारण तो कुछ
भी नहीं होता। इसलिए दार्शनिक सोचते बहुत हैं; जन्म गंवा
देते हैं, करते कभी कुछ नहीं। तुम न तो उन्हें पापियों की
कतार में खड़ा पाओगे और न पुण्यात्माओं की कतार में खड़ा पाओगे; तुम उन्हें कतार के बाहर किनारे बैठे देखोगे। वे राह के किनारे हैं;
वे चलते नहीं, वे सिर्फ सोचते हैं। और सोचते-सोचते
जीवन बीत जाता है, कुछ निर्णय नहीं हो पाता।
यह बड़ा दार्शनिक था। जिस जनरल के हाथ पड़ा वह भी इसे पहचानता था, इसकी किताबें पढ़ी थीं। उसने कहा कि यह क्या कर पाएगा? यह गोली चलाने के पहले हजार बार सोचेगा, इतनी देर में तो दूसरे रुकेंगे नहीं। उसकी शिक्षा शुरू हुई और जब उससे कहा गया, बाएं घूम, दाएं घूम, तो हजारों लोग तो घूम जाते, वह वहीं का वहीं खड़ा है। तो उससे पूछा कि क्या करते हो? उसने कहा, बिना सोचे मैं कुछ कर नहीं सकता। बाएं घूम, तो मैं पूछता हूं क्यों? किसलिए? क्या कारण है? न घूमें तो हर्ज क्या है? घूमें तो लाभ क्या होगा?
अब अगर सैनिक यह पूछे कि बाएं घूम, दाएं घूम..हर्ज क्या है? लाभ क्या है? न घूमें तो क्या होगा? घूमें तो क्या होगा? इतनी देर में तो सारी दुनिया सैनिक की घूम जाती है।
कोई उपाय न देख कर, और दार्शनिक बड़ा प्रसिद्ध था, कोई छोटा-मोटा काम देने को जनरल ने सोचा, तो कहा कि जो फौज की रसोई है, वहां तुम काम करने लगो। पहले ही दिन उसे मटर के दाने अलग-अलग करने को दिए कि बड़े दाने अलग कर लो, छोटे दाने अलग कर लो। घंटे भर बाद जब जनरल पहुंचा तो वह आंख बंद किए थाली के पास वैसा ही बैठा था जैसा उसे छोड़ गया था।
दाने वैसे ही रखे थे; न तो अलग किए गए थे, न उसने हाथ हिलाया था। वह बड़ा ध्यानमग्न था। वह विचार कर रहा था। जनरल ने पूछा, तुम क्या कर रहे हो? उसने कहा, एक मुसीबत आ गई है; एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। बड़े एक तरफ कर दें, छोटे एक तरफ कर दें; कुछ मझोेले हैं, उनको कहां करे? और जब तक सब तय न हो जाए, तब तक कुछ करना उचित नहीं है। मन बड़ा दार्शनिक है। और मन कुछ भी तय नहीं कर पाता। दार्शनिक कभी कुछ तय नहीं कर पाए।
तुम ऐसा समझो, शरीर से जो जुड़ा हुआ शास्त्र है वह विज्ञान; मन से जुड़ा हुआ जो शास्त्र है वह दर्शन; और चेतना से जुड़ा हुआ जो शास्त्र है वह धर्म। विज्ञान भी कुछ कर पाया है, बहुत कर पाया है। धर्म ने भी बहुत किया है। दार्शनिक कुछ भी नहीं कर पाए; वह मन से जुड़ा हुआ तत्त्व है। वे सिर्फ सोचते रहते हैं। वे पक्ष-विपक्ष का हिसाब लगाते रहते हैं और उसका कोई अंत नहीं आता; उस सिलसिले का कोई अंत है ही नहीं। इसीलिए तो हजारों-हजारों साल सोच कर दर्शनशास्त्र किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा; एक भी निर्णय नहीं है, प्रश्न ही प्रश्न हैं; हजारों प्रश्न हैं, एक भी उत्तर नहीं है।
मन को राजी करने की चिंता में मत पड़ना, अन्यथा तुम्हारा जीवन खो जाएगा। मन को छोड़ देना। तुम मन से दूर हट जाना, तो ही तुम्हारे जीवन में सार्थकता आएगी। मन से जुड़े-जुड़े तुम नष्ट हो जाओगे।
गूंगे केरी सरकरा
ओशो
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