मैंने सुना है कि बुद्ध एक गांव में गए थे। बहुत बार उस गांव से
निकले थे। एक आदमी ने आकर उनसे पूछाः तीस वर्षों से समझा रहे हैं लोगों को शांति
की बात, कितने
लोग शांत हो गए? देखता हूं, सुबह से
शाम तक समझाते रहते हैं सत्य की खोज के लिए, कितने लोगों को
सत्य मिल गया है? श्वास-श्वास में एक ही बात है आपकी--मोक्ष
की, मुक्ति की। कितने लोग मोक्ष में प्रवेश कर गए हैं?
उसकी बात का बुद्ध ने कुछ उत्तर नहीं दिया, बल्कि उससे कहाः कल शाम को आकर मिलना। छोटा सा तो तुम्हारा गांव है। हर आदमी से पूछकर एक छोटे से कागज पर लिख लेना--गांव में कोई है जो शांत होना चाहता है।
उसकी बात का बुद्ध ने कुछ उत्तर नहीं दिया, बल्कि उससे कहाः कल शाम को आकर मिलना। छोटा सा तो तुम्हारा गांव है। हर आदमी से पूछकर एक छोटे से कागज पर लिख लेना--गांव में कोई है जो शांत होना चाहता है।
वह आदमी सोचता था कि सभी शांत होना चाहते हैं। उसने कहाः यह भी कोई पूछने की बात है? सभी शांत होना चाहते हैं। कौन है जो अशांत होना चाहता है?
बुद्ध ने कहाः पूछ कर लिख लाना कि कितने लोग सत्य को उपलब्ध करना चाहते हैं? उसने कहाः कौन है जो सत्य को उपलब्ध करना न चाहेगा? बुद्ध ने कहाः ठीक से लिख लाना, कौन हैं जो मोक्ष की मुक्ति को पाना चाहते हैं।
वह आदमी गया दूसरे दिन। सोचा था कि व्यर्थ है पूछना, सभी लोग सत्य चाहते हैं, सभी लोग शांति चाहते हैं, सभी लोग बंधन नहीं चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं। लेकिन जब वह गांव में निकला, तब उसे भूल समझ में आई। सांझ तक भटका।
एक भी आदमी न मिला, जिसने कहा हो कि मैं शांति चाहता हूँ। किसी ने कहा, धन चाहता हूँ; किसी ने कहा, यश चाहता हूँ, किसी ने कहा, स्वास्थ्य चाहता हूँ, किसी ने कहा, और लंबी उम्र चाहता हूँ। वह खोजता रहा उस आदमी को, मगर वह आदमी न मिला जिसने कहा हो कि मैं शांति चाहता हूँ।
उसने बुद्ध को आकर कहाः बड़ा अजीब गांव है। एक भी आदमी नहीं मिला।
बुद्ध ने कहाः यही गांव ऐसा नहीं है। सभी गांव ऐसे हैं। अगर कोई शांति न चाहता हो, तो जबरदस्ती तो शांति मिल नहीं सकती। कोई अगर सत्य न चाहता हो तो सत्य के मंदिर में जबरदस्ती तो प्रवेश हो नहीं सकता।
मैं सोचता था, वह गांव कुछ गलत रहा होगा। जब पहली दफा यह कहानी पढ़ी थी, तब मैं सोचता था कि बुद्ध किसी गलत गांव ठहर गए होंगे। लेकिन अब तो मैं भी बहुत गांवों में घूम चुका। मुझे लगता है कि वह बहुत प्रतिनिधि गांव था; गलत गांव नहीं था। सभी गांव ऐसे ही हैं।
फिर भी सोचता रहा कि ढाई हजार साल पुरानी बात हो गई। ढाई हजार साल पहले ऐसे लोग रहे होंगे। सोचता था, आदमी बदल गया होगा। लेकिन अब लगता है, आदमी वहीं का वहीं है। वस्तुएं बदल जाती हैं, मकान बदल जाते हैं, सब बदल जाता है। आदमी वही का वही रह जाता है। अब भी वही बात है।
शायद आपको भी मेरी बात सुन कर ऐसा लगेगा कि होंगे और लोग जो न चाहते हों, हम तो चाहते हैं। लेकिन कभी कोई भूल होती है, इसलिए ऐसी भ्रांति पैदा होती है। हममें से अधिकतम सभी लोग सुख चाहते हैं, शांति नहीं। यह बड़े मजे की बात है कि सुख को जो चाहता है, वह शांति से विपरीत मार्ग पर यात्रा करने लग जाता है।
जो सुख चाहता है,
वह अशांति ही चाह रहा है। हम चाहते हैं सुख, लेकिन
हम इतने ईमानदार भी नहीं हैं कि हम किसी से कहें कि हम सुख चाहते हैं।
एक मित्र मेरे पास आए, उन्होंने कहाः मैं रमण आश्रम गया, लेकिन सब बेकार है। अरविंद आश्रम गया, कुछ भी मुझे मिला नहीं। अब मैं आपके पास आया हूँ। किसी ने मुझे कहाः उनके पास चले जाओ। तो मैंने उनसे कहाः इसके पहले कि मैं बेकार हो जाऊं, आप कृपा कर इस कमरे के बाहर हो जाएं; जल्दी कीजिए कि बेकार न हो जाऊं मैं भी।
उन्होंने कहाः मैं बड़ी आशा से आया हूं।
मैंने कहाः इसलिए डर और भी ज्यादा बढ़ जाता है। किस लिए गए थे रमणाश्रम, किस लिए गए थे अरविंद आश्रम? उस आदमी ने कहाः मुझे शांति चाहिए। मैंने उन मित्र को पूछाः अशांति सीखने किसके पास गए थे? उसने कहाः किसी के पास नहीं गया था।
मैंने कहाः जब अशांति तक सीखने में इतने समझदार और कुशल थे, तो शांति जैसी सरल बात को कैसे सीख पाओगे? अशांति बहुत जटिल है। अशांति बहुत दुखदायी है। उसे भी तुमने सीख लिया। अशांति बड़ी तपस्या है, जब वह भी तुम कर लेते हो तो शांति तो तुम कर ही लोगे। जब अशांति के लिए तुम किसी के पास पूछने नहीं गए, कोई गुरु नहीं बनाना पड़ा और जब मेरे पास अशांति सीखने नहीं आए, तो फिर शांति सीखने कैसे चले आए?
फिर मैंने उनसे पूछा कि ‘क्या सच में ही शांति चाहिए?’
तो वे कुछ रोज मेरे पास टिके थे। रोज-रोज उनसे बात करता था। मैंने उनसे पूछाः कठिनाई क्या है? शांति के पीछे क्यों पड़े हो?
उन्होंने कहाः आप मानते ही नहीं, तो सच बात मैं आपसे बता दंू। संतान नहीं है, संतान चाहिए। उससे सदा मन बड़ा दुखी रहता है। सोचता हूँ, चलो शांति ही मिल जाए तो ठीक है।
लेकिन हम इतने ईमानदार नहीं हैं कि हम ठीक-ठीक कह सकें कि सुख चाहिए। सुख बहुत रेस्पेक्टेबल शब्द नहीं है, बहुत आदर योग्य नहीं है।
शांति बहुत रेस्पेक्टेबल है। चाहते हैं सुख, तो कहते हैं शांति चाहिए।
और जो-$ लोग सीधा-सीधा कह देते हैं कि सुख चाहिए, उनकी हम निंदा करते हैं। वे लोग--चार्वाक है, एपिकुरस
है, माक्र्स है, वे कहते हैं सुख चाहिए
आदमी को, हमें सुख चाहिए। हम कहते हैं वे सुखवादी हैं,
भौतिकवादी हैं।
हमें भी सुख चाहिए। लेकिन हमने सिर्फ शब्द बदल लिए हैं। सुख की जगह हम कहते हैं शांति, कहते हैं आनंद। ऐश्वर्य चाहिए, लेकिन कहते हैं ईश्वर चाहिए। हालांकि दोनों का मतलब भी एक ही होता है।
कठिनाई इसलिए है कि हम यह भी साफ नहीं कर पाए कि हमें चाहिए क्या! जिस आदमी को इतना भी साफ मालूम न हो कि उसे क्या चाहिए, उसकी जिंदगी गलत हो जाए और भटक जाए, तो आश्चर्य नहीं है। सुख चाहिए, हमें तेा अच्छा है कि यह हमारे सामने स्पष्ट हो जाए कि हमें सुख चाहिए। हम सब चार्वाकवादी हैं, हम सब भौतिकवादी हैं। इसमें अस्वाभाविक भी कुछ नहीं है। हमें सुख चाहिए, अगर यह स्पष्ट बात हमें समझ में आ जाए, तो हम सुख की खोज में लग सकते हैं, सुख की पहचान में लग सकते हैं। सुख मिले, तो हम सोच सकते हैं कि क्या मिला!
जो व्यक्ति ठीक से समझ लें कि उन्हें सुख चाहिए, तो उन्हें यह दिखाई पड़ने में बहुत देर न लगेगी कि सुख के चाहने के पीछे दुख का निमंत्रण है। जो यह ठीक से समझ ले कि उसे सुख चाहिए, उसे यह जानना कठिन न होगा कि सुख की चाह अशांति की जन्मदात्री है।
सुख और शांति
ओशो
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