प्रेम में तो सब से सुगम है। तुम्हारी अड़चन मैं समझ रहा हूं। तुम सोच रहे हो कि प्रेम में अभिनय किया, तो प्रेम झूठा हो जाएगा। तुम मेरी बात चूक गए। तुम समझ नहीं पाए--मैं क्या कह रहा हूं। बात थोड़ी सूक्ष्म है। चूक जाना, समझ में आता है। बहुत स्थूल नहीं है। तुमने बहुत स्थूल तरह से पकड़ा।
अब तुम पूछते होः प्रेम में अभिनय कैसे हो? क्योंकि अगर प्रेम में भी अभिनय किया, तो झूठा हो जाएगा। तो झूठे प्रेम का क्या मूल्य होगा?
दूसरी तरफ से देखो, मेरी तरफ से देखो। जब मैंने कहाः जीवन पूरा अभिनय हो जाए, तो यह तो प्रेम पर सब से ज्यादा लागू होता। क्योंकि प्रेम में कभी कोई कर्ता हो ही नहीं पाया है। इसलिए तो प्रेम परमात्मा के बहुत निकट है, प्रार्थना के बहुत निकट है।
तुमने प्रेम किया है? या प्रेम हुआ है? --इस पर सोचना। इसे जरा ध्यान देना। तुम्हारा किसी से प्रेम का नाता बना--यह तुमने किया है या हुआ है? करना क्या है इसमें? तुमने किया क्या? तुमने कुछ चेष्टा की? अभ्यास किया? योगासन साधे? तुमने किया क्या?
कोई दिखाई पड़ा; किसी को देखा, और अचानक एक प्रेम की लहर दौड़ गई; रोआं-रोआं पुलकित हो गया। किसी से आंख मिली और बात हो गई। क्षण भर पहले तक प्रेम का ख्याल ही न था। प्रेम की तुम सोच भी न रहे थे। प्रेम की कोई बात ही न थी। किसी से आंख मिली और बात हो गई। बात हुई ही नहीं और ‘बात’ हो गई--और तुम सदा के लिए बंध गए।
इसको तुम कृतत्व कहते हो? तुमने किया क्या? इसमें तुम्हारा कर्तापन कहां है? हुआ। प्रेम होता है--किया नहीं जाता।
इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम में अगर कर्ताभाव बना रहे हो, तब तो तुमने हद्द कर दी। वहां तो कर्ता है ही नहीं। इसलिए तो ज्ञानियों ने कहाः प्रेम ही परमात्मा तक ले जाता है। प्रेम को ही समझ लो कि तुम जीवन की बड़ी गहरी बात समझ गए।
प्रेम किसने किया है? कभी किसी ने नहीं किया है। सब होता है। और होता है, तो फिर कैसे कर्ता? फिर तो अकर्ता का भाव अपने आप गहरा हो जाएगा। उसी अकर्ता में अभिनय है।
तो जब मैं तुमसे कहता हूंः अभिनय समझो, तो तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि अभिनय ‘करो’। तुमसे यह कह रहा हूं कि समझोगे, तो कर्ता विसर्जित हो जाएगा; जो रह जाएगा, वह अभिनय-मात्र है।
परमात्मा ने प्रेम करवा दिया, तो प्रेम हो गया। नहीं तो तुम्हारे वश में क्या था? तुम कोशिश कर के सफल हो सकोगे? अगर मैं कहूं कि इस व्यक्ति को प्रेम करो। तुम क्या करोेग? तुम कहोगेः होता ही नहीं, तो क्या करें?
हो सकता है; इसे तुम गले लगा लो, मगर गले लगाने में तो प्रेम नहीं है। हड्डी से हड्डी लगेगी। चमड़ी से चमड़ी मिल जाएगी, मगर भीरत तुम जानोगे कि प्रेम तो है ही नहीं। कुछ उगम नहीं रहा; कोई गीत जनम नहीं रहा; कोई संगीत नहीं उठ रहा। तुम जल्दी में होओगे कि कब इससे छुटकारा हो! यह आदमी अब कब तक पकड़े रहेगा! कि और ज्यादा न भींच दे! हड्डी-पसली तोड़ देगा--क्या करेगा? अब यह आदमी छोड़े!
तुमसे अगर कहा जाएः प्रेम करो, तो तुम क्या करोगे? तुम कुछ भी न कर पाओगे। इसलिए तो दुनिया में प्रेम झूठा हो गया है। मतलब?
बचपन से तुम्हें समझाया गया है कि प्रेम करो, और प्रेम किया नहीं जा सकता। तो तुम ‘करना’ सीख गए हो।
मां कहती हैः प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारी मां हूं। अब मां होने से क्या प्रेम का लेना-देना? पिता कहता हैः मुझसे प्रेम करो, क्योंकि मैं तुम्हारा पिता हूं।
यह छोटे से बच्चे से हम जो आशाएं रख रहे हैं, ये आशाएं बड़ी भयंकर हैं। यह छोटा बच्चा क्या करे? पिता हैं आप, ठीक है। लेकिन इसे प्रेम हो तो हो; और नहीं हो रहा है, तो यह क्या करे?
बच्चा इनकार भी नहीं कर सकता है; विरोध भी नहीं कर सकता है; बगावत भी नहीं कर सकता है। यह निर्भर भी है--मां-बाप पर। यह धीरे-धीरे प्रेम का पाखंड रचाने लगेगा। यह धीरे-धीरे, मां आएगी, तो मुस्कुराएगा। अभी और तो कुछ कर नहीं सकता। मां समझेगी कि कितना प्रेम करता है बेटा! यह मुस्कुराहट झूठी है। यह बेटा राजनीति सीख गया। ‘यह मां खुश होती है; मां के खुश होने में लाभ है।’
बाप घर आता है; बेटा भागा हुआ द्वार पर जाता है; स्वागत करता है। यह वैसे ही समझ गया राज, जैसे तुम घर आते हो, तो कुत्ता पूंछ हिलाने लगता है। तुमसे कुछ प्रेम है कुत्ते का? कुत्ता राजनीति कर रहा है। कुत्ता राजनीतिज्ञ है। कुत्ता एक बात समझ गया कि पूंछ हिलाने से तुम ऐसे बुद्धू हो कि बड़े प्रसन्न होते हो। तो हिला दो; पूँछ हिलाने में हर्ज क्या है? पूंछ हिला देता है, तो तुम मिठाई भी देते हो। खिलौने भी लाते हो; पुचकारते भी हो।
जैसा कुत्ता सीख जाता है कि पूंछ हिला दो; ऐसा बच्चा सीख जाता है कि मुस्कुराओ; दौड़ कर पिता का हाथ पकड़ लो; मां की साड़ी पकड़ लो। मां का पल्लू पकड़ कर घूमते रहो। मां बड़ी खुश होती है। खुश होती है, तो लाभ है, सुरक्षा है।
ऐसे प्रेम शुरू से ही झूठ होने लगा। फिर एक दिन तुम्हारा विवाह हो जाएगा और तुमसे कहा जाएगाः यह तुम्हारी पत्नी है, यह तुम्हारा पति है, अब इसको प्रेम करो। पति परमात्मा है, इनको प्रेम करो। प्रेम कैसे करोगे? प्रेम को झुठला दिया गया है।
प्रेम किया ही नहीं जा सकता। हो जाए, तो हो जाए। यह आकाश से उतरता हैं। यह किन्हीं अनजान रास्तों से आता है और प्राणों को घेर लेता है। यह हवा के झोंके की तरह आता है।
देखते हैंः वृक्ष हिलते हैं; हवा का झोंका आ गया। नहीं आएगा, तो नहीं हिलेंगे। ऐसा ही प्रेम है। सूरज निकला, तो रोशनी फैल गई। नहीं निकला, तो अंधेरा है। ऐसा ही प्रेम है।
प्रेम तुम्हारे हाथ में नहीं; प्रेम तुम्हारे बस में नहीं; प्रेम तुम्हारी मुट्ठी में नहीं है। तुम प्रेम की मुट्ठी में हो। यह समर्पण का अर्थ होता है।
तो प्रेम तो सब से ज्यादा निकट बात है प्रार्थना के। इसलिए प्रेम को अगर तुमने समझ लिया, तो तुम पाओगेः तुम्हारा किया कुछ भी नहीं; परमात्मा करवा रहा है। यही मेरा अर्थ है--अभिनय से।
अभिनय से मेरा अर्थ नहीं है कि तुम कुछ कर रहे हो। तुमने कुछ किया, तो झूठ हो जाएगा। तुमने यह जाना कि मैं करने वाला नहीं हूं; कराने वाला और करने वाला ‘वही’ है; मैं सिर्फ उपकरणमात्र, उसके हाथ की कठपुतली। ‘मुक्तिमूल आधीनता...।’
नहीं सांझ नहीं भोर
ओशो
No comments:
Post a Comment