मुल्ला नसरुद्दीन का बेटा नदी में डूब रहा था—बाढ़ आयी नदी में। एक पुलिस
वाले ने अपनी जान को जोखिम में डाल कर उसे बचाया। उसे लेकर घर गया। बेटा दौड़ता हुआ
भीतर गया, पुलिस वाला खड़ा रहा कि शायद मां—बाप में से कोई आकर कम से कम धन्यवाद तो देगा। नसरुद्दीन भीतर से आया और
उस लड़के ने इशारा किया पुलिस वाले की तरफ; नसरुद्दीन ने कहा क्या आपने ही मेरे
बेटे को नदी में बचाया? पुलिस वाला प्रसन्न हुआ कि अब
धन्यवाद देगा या कुछ भेंट देगा या कुछ पुरस्कार। उसने कहा. जी ही, मैंने ही बचाया, बड़ी खतरनाक हालत थी। उसने कहा : छोड़ो
जी खतरनाक हालत, बेटे की टोपी कहां है?
वह टोपी कहीं बह गयी है। अब बेटे को बचाया, इसकी चिंता नहीं है,
टोपी का मोह!
कामवासना जो पा लेती है उस पर मोह मार कर बैठ जाती है। उसे छीन
न ले कोई! बड़ी मुश्किल से तो पाया,
बड़े द्वार—दरवाजे खटकाये, भीख मांगी, दर—दर भटके,
राह—राह की धूल फीकी, किसी
तरह से पाये, अब कहीं छूट न जाये! तो जो मिल जाता है,
उसे आदमी भोगता तक नहीं, उस पर कुंडली मार कर
बैठ जाता है।
इसलिए तुम अमीर से ज्यादा गरीब आदमी न पाओगे। गरीब तो भोग भी
लेता है। उसके पास ज्यादा है नहीं कुंडली मारने को। कुंडली मारने के लिए कुछ
चाहिए। मिल जाता है, रुपये—दों रुपये कमा लिये, मजा
कर लेता है। है ही नहीं बचाने योग्य तो बचाना क्या? बचकर भी
क्या बचेगा? लेकिन अमीर, जिसके पास है,
वह नहीं भोग पाता, कृपणता पैदा होती है। और
बचा लो, और बचा लो! यह भूल ही जाता है कि बचाया किसलिए था।
जैसे बचाना ही लक्ष्य हो जाता है!
तो मोह भी बाइ—प्रोडक्ट, वह भी मौलिक नहीं है। फिर जो मिल गया,
उतने से तृप्ति कहां होती है! तृप्ति तो होती ही नहीं। अतृप्ति का
जाल तो फैलता ही चला जाता है। हजार मिल गये तो दस हजार चाहिए। दस हजार मिल गये तो
लाख चाहिए। तुम्हारे और तुम्हारे मिलने के बीच अनुपात सदा वही रहता है। उसमें फर्क
नहीं पड़ता। एक रुपया तो दस रुपया चाहिए; एक लाख तो दस लाख
चाहिए। दोनों के बीच का अनुपात वही का वही है। दस का अनुपात है।
तुम कभी अपने जीवन के गणित को देखना। तुम बड़े चकित होओगे। जब
तुम्हारे पास रुपया था तब तुम दस मांग रहे थे। तुम्हारा दुख इतना का इतना था।
क्योंकि नौ की कमी थी। अब तुम्हारे पास लाख रुपये हैं, अब तुम दस लाख मांग रहे। अब
भी दुख उतना का उतना ही है, क्योंकि नौ लाख की कमी है। वह नौ
की कमी बनी ही रहती है। करोड़ हो जायेंगे तो दस करोड़ मांगने लगोगे। तुम्हारी मांग
कभी तुम्हारे पास जो है उसके साथ तालमेल नहीं खाती। उसके आगे झपट्टा मारती रहती
है। इस झपट्टा मारते हुए कामवासना के दौड़ते हुए रूप का नाम लोभ है।
तो क्रोध, मोह, लोभ, ये मौलिक नहीं हैं।
इसलिए इनसे सीधे मत लड़ना। कुछ लोग इनसे सीधे लड़ते हैं और इसलिए कभी नहीं जीत पाते।
जब भी लड़ना हो तो बीज से लड़ना, पत्तों से मत लड़ना। जब भी
.लड़ना हो, जड़ काटना, शाखाएं—प्रशाखाएं मत काटना; अन्यथा कभी कोई लाभ न होगा। तुम
क्रोध को काटते रहो, कुछ फर्क न होगा। तुम्हारी वासना के
वृक्ष पर नये पत्ते लगने लगेंगे। सच तो यह है, जितना तुम
काटोगे उतना वृक्ष घना होने लगेगा। इसलिए इनसे तो उलझना ही मत। यह तो गलत निदान हो
जायेगा। मूल को पकड़ना।
काम को काटने से क्रोध,
मोह, लोभ तीनों अपने आप
क्षीण होते चले जाते हैं। और काम को काटने से धीरे — धीरे
समय भी क्षीण हो जाता है। और एक ऐसी दशा आने लगती है जब तुम जहां हो वहां परिपूर्ण
रूप से हो; तुम जैसे हो वैसे परम तृप्त, एक गहरा संतोष, लहर भी नहीं उठती! कुछ और होने का
भाव भी नहीं उठता। जैसे हैं वैसे! और वैसे ही ठीक! और एक धन्यवाद, एक अहोभाव प्रभु के प्रति एक अनुकंपा! ऐसी घड़ी में समय नहीं रह जाता। ऐसी
घड़ी में तुम कालातीत हो जाते हो।
इसलिए मैं तुमसे कहता हूं बार—बार : तुम जो भी करो, ऐसी
तल्लीनता से करना कि उस समय समय मिट जाये। वही ध्यान हो गया। अगर तुम जमीन में
गड्डा खोद रहे हो बगीचे में तो इतनी तल्लीनता से खोदना कि खोदना ही रह जाये। खोदने
में ऐसा रस आ जाये, ऐसी तृप्ति मिलने लगे कि जैसे इसके पार
कुछ करने को नहीं है, न कुछ होने को है। तो फिर यह गड्डा
खोदना ही ध्यान हो गया। यहीं तुम समय के बाहर हो गये और गड्डा खोदते—खोदते ही तुम पाओगे ध्यान की रसधार बहने लगी। जहां समय गया, वहीं ध्यान। जहां समय शून्य हुआ, वहीं समाधि।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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