मंत्र तो मन का ही खेल है। मंत्र शब्द का भी यहीं अर्थ है, मन का जाल, मन का फैलाव। मंत्र से मुक्त होना है, क्योंकि मन से
मुक्त होना है। मन न रहेगा तो मंत्र को सम्हालोगे कहां? और
अगर मंत्र को सम्हालना है तो मन को बचाये रखना होगा।
निश्चय ही मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया। नहीं चाहता कि
तुम्हारा मन बचे। तुमसे मंत्र छीन रहा हूं। तुम्हारे पास वैसे ही मंत्र बहुत हैं।
तुम्हारे पास मंत्रों का तो बड़ा संग्रह है। वही तो तुम्हारा सारा अतीत है। बहुत
तुमने सीखा। बहुत तुमने ज्ञान अर्जित किया। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई ईसाई है। किसी का मंत्र कुरान में
है, किसी का मंत्र वेद में है।
कोई ऐसा मानता, कोई वैसा मानता। मेरी सारी
चेष्टा इतनी ही है कि तुम्हारी सारी मान्यताओं से तुम्हारी मुक्ति हो जाए। तुम न
हिंदू रहो, न मुसलमान, न ईसाई। न वेद
पर तुम्हारी पकड़ रहे, न कुरान पर। तुम्हारे हाथ खाली हो
जायें। तुम्हारे खाली हाथ में ही परमात्मा बरसेगा। रिक्त, शून्य
चित्त में ही आगमन होता परम का; द्वार खुलते हैं।
तुम मंदिर हो। तुम खाली भर हो जाओ तो प्रभु आ जाए। उसे जगह दो।
थोड़ा स्थान बनाओ। अभी तुम्हारा घर बहुत भरा है—कूडे —कर्कट से, अंगड—खंगड से। तुम भरते ही चले जाते हो। परमात्मा
आना भी चाहे तो तुम्हारे भीतर अवकाश कहां? किरण उतरनी भी
चाहे तो जगह कहां? तुम भरे हो। भरा होना ही तुम्हारा दुख है।
खाली हो जाओ! यही महामंत्र है। इसलिए मैंने तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया, क्योंकि मैं तुम्हें किसी मंत्र से भरना नहीं चाहता। मन से ही मुक्त होना
है। लेकिन अगर मंत्र शब्द से तुम्हें बहुत प्रेम हो और बिना मंत्र के तुम्हें अड़चन
होती हो, तो इसे ही तुम बता दिया करो कि मन से खाली हो जाने
का सूत्र दिया है; साक्षी होने का सूत्र दिया है।
कुछ रटने से थोड़े ही होगा कि तुम राम—राम, राम—राम दोहराते रहो तो कुछ हो जाएगा। कितने तो हैं दोहराने वाले! सदियों से
दोहरा रहे हैं। उनके दोहराने से कुछ भी नहीं हुआ। दोहराओगे कहां से? दोहराना तो मन के ही यंत्र में घटता है। चाहे जोर से दोहराओ, चाहे धीरे दोहराओ—दोहराता तो मन है। हर दोहराने में
मन ही मजबूत होता है। क्योंकि जिसका तुम प्रयोग करते हो वही शक्तिवान हो जाता है।
मैं तुम्हें कह रहा हूं कि साक्षी बनो। ये मन की जो प्रक्रियाएं
हैं, ये जो मन
की तरंगें हैं, तुम इनके द्रष्टा बनो। तुम इन्हें बस देखो।
तुम इसमें से कुछ भी चुनो मत।
कोई फिल्मी गीत गुनगुना रहा है, तो तुम कहते : अधार्मिक; और
कोई भजन गा रहा है तो तुम कहते हो : धार्मिक! दोनों मन में हैं—दोनों अधार्मिक। मन में होना अद्यर्म में होना है। उस तीसरी बात को सोचो
जरा। खड़े हो, मन चाहे फिल्मी गीत गुनगुनाए और चाहे राम—कथा—तुम द्रष्टा हो। तुम सुनते हो, देखते हो, तुम तादात्म्य नहीं बनाते। तुम मन के साथ
जुड़ नहीं जाते। तुम्हारी दूरी, तुम्हारी असंगता कायम रहती
है। तुम देखते हो मन को ऐसे ही जैसे कोई राह के किनारे खड़े हुए चलते हुए लोगों को
देखे: साइकिलें, गाड़ियां, हाथी—घोड़े, कारें, ट्रक, बसें:। तुम राह के किनारे खड़े देख रहे हो। तुम द्रष्टा हो।
अष्टावक्र का भी सारा सार एक शब्द में है—साक्षी।
मंत्र तो बोलते ही तुम कर्ता हो जाओगे। बड़ा सूक्ष्म कर्तृत्व है, लेकिन है तो! मंत्र पढ़ोगे,
प्रार्थना करोगे, पूजा करोगे—कर्ता हो जाओगे। बात थोड़ी बारीक है। थोड़ा प्रयोग करोगे तो ही स्वाद आना
शुरू होगा।
जो चल रहा है,
जो हो रहा है, वही काफी है; अब और मंत्र जोड्ने से कुछ अर्थ नहीं है। इसी में जागो। इसको ही देखने
वाले हो जाओ। इससे संबंध तोड़ लो। थोड़ी दूरी, थोड़ा अलगाव,
थोड़ा फासला पैदा कर लो। इस फासले में ही तुम देखोगे मन मरने लगा।
जितना बड़ा फासला उतना ही मन का जीना मुश्किल हो जाता है। जब तुम मन का प्रयोग नहीं
करते तो मन को ऊर्जा नहीं मिलती। जब तुम मन का सहयोग नहीं करते तब तुम्हारी शक्ति
मन में नहीं डाली जाती। मन धीरे— धीरे सिकुड़ने लगता है। यह
तुम्हारी शक्ति से मन फूला है, फला है। तुम्हीं इसे पीछे से
सहारा दिये हो। एक हाथ से सहारा देते हो, दूसरे हाथ से कहते
हो: कैसे छुटकारा हो इस दुख से? इस नर्क से? तुम सहारा देना बंद कर दो, इतना ही साक्षी का अर्थ
है।
मन को चलने दो अपने से,
कितनी देर चलता है? जैसे कोई साइकिल चलाता है,
तो पैडल मारता तो साइकिल चलती है। साइकिल थोड़े ही चलती है, वह जो साइकिल पर बैठा है, वही चलता है। साइकिल को सहारा
देता जाता है, साइकिल भागी चली जाती है। तुम पैडल मारना बंद
कर दो, फिर देखें साइकिल कितनी देर चलती है! थोड़ी—बहुत चल जाए, दस—पचास कदम,
पुरानी दी गयी ऊर्जा के आधार पर; लेकिन ज्यादा
देर न चल पाएगी, रुक जाएगी। ऐसा ही मन है।
मंत्र का तो अर्थ हुआ पैडल मारे ही जाओगे। पहले भजन या फिल्म का
गीत गुनगुना रहे थे, अब तुमको किसी ने मंत्र पकड़ा दिया—दोहराओ ओम,
राम—उसे दोहराने लगे, दोहराना
जारी रहा। पैडल तुम मारते ही चले जाते हो। प्रक्रिया में जुड़ जाना मन की, मन को बल देना है।
तो अगर तुम्हें मंत्र शब्द बहुत प्रिय हो तो यही तुम्हारा मंत्र
है, महामंत्र,
कि मन से पार हो कर साक्षी बन जाना है। और जिन संन्यासियों की तुम
बात कर रहे हो, पुराने ढब के संन्यासी, उनसे थोड़े सावधान रहना। वैसा संन्यास सड़ा—गला है।
वैसा संन्यास बड़े धोखे और प्रवंचना से भरा है। वैसा संन्यास एक शोषण है।
अष्टावक्र महागीता
ओशो
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