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Saturday, October 5, 2019

आस्तिक होने के लिए नास्तिक होना अत्यंत अनिवार्य है।


अभागे हैं वे जिन्होंने कभी नास्तिकता नहीं चखी, क्योंकि वे आस्तिकता का स्वाद समझ पाएंगेआस्तिकता उभर कर प्रकट होती है, नास्तिकता की पृष्ठभूमि चाहिएजैसे ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं सफेद खड़िया से, अक्षर-अक्षर साफ दिखाई पड़ता हैयूं तो सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, मगर तब अक्षर दिखाई पड़ेंगे

इस जगत के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है कि हम प्रत्येक बच्चे को नास्तिक बनने के पहले आस्तिक बना देते हैं


वह आस्तिकता झूठी होती है, उसमें कुछ प्राण नहीं होतेउस आस्तिकता में पंख नहीं होतेवह निर्वीर्य होती है, निर्जीव होती हैखिलौनों की तरह कृष्ण को पकड़ा देते हैं, राम को पकड़ा देते हैं, बुद्ध को, महावीर को पकड़ा देते हैंअभी बच्चे में जिज्ञासा भी नहीं जगी, अभी प्रश्न भी नहीं उठा, और हमने उत्तर दे दिए! जहां प्रश्न ही नहीं है, वहां उत्तर मिथ्या होगा; वहां उत्तर की कोई गुंजाइश ही नहीं हैबीमारी ही नहीं है, और तुमने इलाज शुरू कर दिया! तुम दवा पिलाने लगे! तुम्हारी दवा जहर बन जाएगी


और आस्तिकता जहर बन गई हैसारी पृथ्वी आस्तिकता से पीड़ित है, नास्तिकता से नहींऔर आदमी कुछ ऐसा मूढ़ है कि एक अति से दूसरी अति पर जाने में उसे देर नहीं लगतीरूस, चीन और दूसरे कम्युनिस्ट देश दूसरी अति पर चले गएबच्चा पैदा हुआ, और वे उसे नास्तिकता सिखाने लगते हैं। 


सिखाई नास्तिकता उतनी ही थोथी होगी, जितनी सिखाई आस्तिकताकिसी बच्चे को भूख तो नहीं सिखानी होती, प्यास तो नहीं सिखानी होती, नींद तो नहीं सिखानी होती। 


नास्तिकता वैसी ही स्वभावतः पैदा होती हैनास्तिकता का ठीक अर्थ है: जिज्ञासा, आकांक्षा जानने की, अन्वेषण, खोजवह यात्रा हैप्रत्येक व्यक्ति अपने साथ लेकर आया है उसके बीजकिसी को नास्तिक बनाने की जरूरत नहीं है और किसी को आस्तिक बनाने की जरूरत हैबनाया कि चूक हुईबनाया कि ढोंग हुआबनाया कि मुखौटे उढ़ा दिएफिर मुखौटे हिंदू के हों, कि मुसलमान के, कि ईसाई के, कि नास्तिक के, कम्युनिस्ट के, इससे भेद नहीं पड़तादूसरों के द्वारा उढ़ाए गए मुखौटे तुम्हारा चेहरा नहीं हैंऔर तुम्हारा चेहरा ही काम आएगा। 


जीवन उधार नहीं जीया जा सकताजीवन प्रामाणिक होना चाहिएहमें इतना धैर्य रखना चाहिए कि बच्चे पर जब जिज्ञासा अपने आप अवतरित होगी, जब वह पूछेगा, तो हम साथ देंगेऔर साथ भी बहुत सोच कर देना। 


साथ देने का अर्थ नहीं है कि वह पूछे और तुम उत्तर देनाप्रश्न उसका, उत्तर तुम्हारा, मेल कैसे होगा? प्रश्न उसका तो उत्तर भी उसका ही होना चाहिए, तभी तृप्ति होगी, तभी संतोष होगा, तभी बोध होगा, बुद्धत्व होगा

अनहद में बिसराम 

ओशो



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