बहुत लोग मेरे पास आकर हास्यास्पद प्रश्न करते हैं कि ‘ध्यान का प्रयोजन क्या है’
ध्यान का कोई भी प्रयोजन हो नहीं सकता, क्योंकि
मौलिक रूप से ध्यान अ-मन की अवस्था है। ऐसी स्थिति, जहां बस
तुम हो, कहीं आना-जाना नहीं है। चाहो तो कह लो कि ध्यान का
लक्ष्य ‘यहीं और अभी’ मौजूद है :
तुम्हारा अंतर्तम।
जैसे ही गंतव्य कहीं दूर होता है, मन उस ओर यात्रा शुरू कर देता है। मंजिल के बारे में सोच-विचार की प्रक्रिया में संलग्न हो जाता है। भविष्य के साथ ही चित्त गति कर सकता है। लक्ष्य के आते ही भविष्य आता है और भविष्य के साथ समय आता है।
श्वेत बादल समयातीत आकाश में मंडराता है, उसके पास न मन है और न भविष्य है। वह यहीं और अभी है, उसका हर क्षण पूर्ण शाश्वत है। चूंकि बिना लक्ष्य के मन बच नहीं सकता, इसलिए अपना वजूद बनाए रखने के लिए, मन नए-नए उद्देश्य पैदा किए चले जाता है। यदि लौकिक लक्ष्य पूरे हो गए, तो तथाकथित पारलौकिक लक्ष्यों की तरफ लालायित होता है। अगर धन व्यर्थ हो गया तो ध्यान उपयोगी हो जाता है। यदि सांसारिक प्रतियोगिता और राजनीति निरर्थक हो गई, तो तथाकथित स्वर्ग आदि की होड़ शुरु हो जाती है; धार्मिक उपलब्धियां सार्थक बन जाती हैं। मगर मन सदैव किसी न किसी प्रयोजन की कामना से ग्रस्त रहता है। जबकि मेरे अनुसार, केवल वही मन धार्मिक है, जो लक्ष्यहीन है। इसका मतलब है कि मन, वस्तुतः मन की तरह तब बचता ही नहीं। ऐसे मन-रहित बादल की तरह स्वयं को महसूस करो।
तिब्बत में एक सुंदर ध्यान विधि है; वहां भिक्षु पहाड़ियों पर नितांत अकेले में, आकाश में मंडराते हुए बादलों पर ध्यान लगाते हैं। क्रमश: वे खुद भी बादलों की भांति, रूप से अरूप में खोने लगते हैं। धीरे-धीरे वे बादल जैसे ही हो जाते हैं- निर्विचार, स्वयं के होने में प्रफुल्लित! कोई विरोध नहीं, कोई संघर्ष नहीं। कुछ पाना नहीं, कुछ खोना नहीं, केवल होना! वर्तमान क्षण के आनंद में मग्न, वे अपने होने का उत्सव मनाते हैं।
इसीलिए मैं अपने मार्ग को श्वेत मेघों का मार्ग कहता हूं और चाहता हूं कि तुम भी गगन में मंडराते इन बादलों के समान हो जाओ। मैं किसी गंतव्य की ओर निर्धारित दिशा में गति करना नहीं सिखा रहा हूं- सिर्फ तिरना है, जहां भी हवाएं तुम्हें ले जाएं; बस, उसी तरफ निर्विरोध बहते जाना है। जहां कहीं भी पंहुच जाओ, वही तुम्हारा लक्ष्य है। लक्ष्य किसी सीधी रेखा की भांति नहीं है जिसके आरंभ और अंत के बिंदु तय हैं। जीवन का कोई ओर-छोर नहीं है। प्रत्येक क्षण स्वयं में एक लक्ष्य है।
तुम सब सिद्ध हो, बुद्ध हो। तुम्हारे पास एक संपदा है। तुम अपनी समग्रता और परिपूर्णता में हो। तुम सक्षम हो, बिल्कुल बुद्ध, महावीर और कृष्ण की भांति। तुम क्या खोज रहे हो? ठीक अभी, इसी क्षण में, सब कुछ यहीं तो है; केवल तुम सतर्क नहीं हो। और तुम सजग इसलिए नहीं हो पाते क्योंकि तुम्हारा मन भविष्य में डोल रहा है। तुम वर्तमान में नहीं हो। तुम इसके प्रति बिल्कुल भी जागरूक नहीं हो कि वर्तमान के क्षण में कुछ महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा है। और ऐसा सदा-सदा से हो रहा है। लाखों जन्मों से यह होता चला आ रहा है। हर क्षण तुम एक ‘बुद्ध’ हो। एक पल के लिए भी तुम बुद्धत्व के अनुभव से अछूते नहीं रहे। और कभी चूक भी नहीं सकते, क्योंकि स्वाभाविक रूप से सत्य ऐसा है, चीज़ें ऐसी हैं।
बुद्धत्व से तुम कभी च्युत नहीं हो सकते। लेकिन तुम इस तथ्य के प्रति सजग नहीं हो पा रहे, क्योंकि कहीं-न-कहीं तुम्हारे मन में कोई दूरगामी लक्ष्य है जो तुम्हें प्राप्त करना है। इसी लक्ष्य-उन्मुखता की वजह से एक अवरोध उत्पन्न हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरूप को तुम भूल जाते हो।
एक बार वास्तविकता प्रकट हो जाए, एक दफा तुम आंतरिक सचाई को अनुभव कर लो, तो चेतना का महानतम और गहनतम रहस्य प्रकट हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है, पूरी समष्टि को स्वयं में समेटे हुए है। जब कहा जाता है कि ‘सर्वम् ब्रह्मम्’ या ‘सब की आत्मा एक है’ या ‘कण-कण में भगवान’ या ‘सर्वत्र अखण्ड और असीम भगवत्ता है’ तो इसका तात्पर्य उसी अंतर्निहित पूर्णता से है। यही भाव उपनिषद् के महावाक्य ‘तत्वमसि’ अर्थात ‘तुम वही हो’ में समाहित है।
सफ़ेद बादलों का मार्ग
ओशो
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