तेजराम मीणा,
वहीं समस्या तुम्हारे साथ नहीं हो सकती। तुम महावीर नहीं हो। इसलिए वही
समाधान भी तुम्हारे काम का नहीं हो सकता। तुम चालबाजी करना चाहते हो; तुम धोखा देना चाहते हो।
तेजराम मीणा है गंगापूर सिटी, राजस्थान से। पक्के मारवाड़ी मालूम होते हैं। तुम
अपनी मारवाड़ी कुशलता का उपयोग कर रहे हो। महावीर मारवाड़ी नहीं थे।
पहली तो बात,
जब महावीर को उनकी मां ने, उनके पिता ने,
या उनके बड़े भाई ने कहा कि हमारे रहते, जीते तुम
संन्यास की बात ही मत उठाना, तो वह फिर किसी से पूछने नहीं गये,
जैसा तुम मुझसे पूछने आए हो। भेद तो वहीं से शुरू हो जाता है। वह किसी
से पूछने नहीं गये।
मैं रायपूर में था,
एक युवक ने मुझसे आकर पूछा कि मैं शादी करूं न करूं? मैंने कहा, तुम कर ही लो। उसने कहा, आप ने क्यों नहीं की फिर? जब मुझे आप करने को कहते हैं
तो आपने क्यों नहीं की? मैंने उससे कहा कि देखे, मुझमें तुममें फर्क है। मैं किसी से पूछने नहीं गया। तुम किसी पूछने आए हो।
वही से फर्क शुरू हो गया। अगर तुम्हें करनी ही नहीं है तो तुम पूछने भी नहीं आओगे।
पूछने का मतलब ही क्या? कि तुम दुविधा में हो।
महावीर का दुविधा ही खड़ी नहीं हुई। महावीर की मां ने कहा कि मेरे
जीते-जी संन्यास की बात मत उठाना,
महावीर एक शब्द नहीं बोले, बात खत्म हो गयी। फिर
मां मर गयी तो मरघट से घर भी नहीं लौटे, मां की चिता वहां राख
हो रही और उन्होंने अपने भाई से कहा कि मां ने कहा था--जब तक मैं जिंदा हूं,
संन्यास मत लेना। दो साल मैं चुप रहा। संयोग की बात, अब मां चली गयी। अब तुमसे आज्ञा लेता हूं, तुम बड़े भाई
हो, अब आज्ञा दे दो। बड़े भाई ने कहा कि तुझे शर्म नहीं आती?
संकोच भी नहीं होता? मां मर गयी हमारी,
उसके पहले पिता मर गये--जब पिता मरे, तब तूने मां
से पूछा, क्योंकि पहले तुझे पिता ने रोका था; अब मां मर गयी, तू मुझे सताने लगा! इधर हम पर पहाड़ पर
पहाड़ टूट रहे हैं मुसीबतों के--पिता चले गये, मां चली गयी--और
एक तू है कि तुझे एक ही धुन है--संन्यास! जब तक मैं जिंदा हूं, यह बात ही मत उठाना। फिर भी दुविधा नहीं आयी, महावीर
ने कहा कि ठीक। फिर बात ही मत उठाना। फिर बात नहीं उठाई। उठाई ही नहीं बात!
मगर इसका यह मतलब मत समझ लेना कि महावीर संन्यास से रुके। यह मतलब
समझा तो भूल हो जाएगी। महावीर घर में रहते ही संन्यस्त हो गये। महावीर ने ऐसा संन्यास
ले लिया जैसा संन्यास मैं तुम्हें दे रहा हूं। इस संन्यास की शुरुआत महावीर ने ही की--यूं
समझो। वह घर में ही रहते संन्यस्त हो गये। सारा समय ध्यान में बीतने लगा। अपने भीतर
ही आंख बंद किये डुबकी मारे रहते। भोजन करने के लिए कोई कह देता तो भोजन कर लेते, कोई न कहता तो चुपचाप बैठे रहते।
किसी को सलाह न देते, मशविरा न देते। दो आदमी भी घर में लड़ रहे
हों और महावीर बैठे हों तो वह यह भी नहीं कहते कि भाई, लड़ो मत,
क्यों झगड़ा करते हो? वह यूं देखते रहते जैसे अपना
कुछ लेना ही देना नहीं है। घर में आग भी लगी हो तो महावीर बैठे साक्षीभाव से देखते
रहते। जैसे हैं ही नहीं।
मेरी मां यहां मौजूद हैं। बचपन में ऐसा अक्सर हो जाता था। मैं कभी
घर के किसी काम आया नहीं। छोटे-मोटे काम भी नहीं आया कि सब्जी ले आओ,...कोई बाजार दूर नहीं था,
छोटा गांव, एक चार कदम पर बजार था, लेकिन उतना भी काम मैंने कभी घर का किया नहीं। धीरे-धीरे घर के लोग राजी हो
गये थे--करेंगे क्या? तो मैं सामने बैठा रहता, मेरी मां सामने बैठी रहती और कहती, घर में कोई दिखाई
नहीं पड़ता, किसी को सब्जी लेने बाहर भेजना है। और मैं कहता
--दिखाई तो कोई भी नहीं पड़ता। मैं सामने ही बैठा हूं और वह मेरे ही सामने कहती है:
घर में कोई दिखाई ही नहीं पड़ता। कि कोई होता तो किसी के सब्जी लेने भेज देते। मैं कहता,
कोई दिखाई पड़ेगा तो मैं बताऊंगा, दिखाई तो मुझे
भी नहीं पड़ता।
फिर मैं विश्वविद्यालय गया तो अपनी बुआ के घर रहा। उनका यह भी सनक
सवार कि मुझे बिगाड़ दिया है। घर के लोगों ने कोई कभी काम बताया नहीं, कभी काम लिया नहीं, तो मैं बिलकुल बिगड़ गया हूं। तो उन्होंने सुधारने का जुम्मा लिया। मैंने कहा,
बिलकुल ठीक। तो उन्होंने पहले ही दिन मुझे कहा कि जाओ तुम...आम का मौसम
था,...तुम आम खरीद लाओ। मैंने कहा, ठीक।
मैं गया बजार में,
मैंने दुकानदार से पूछा कि सबसे कीमती आम कौन-से हैं? उसने मुझे देखकर ही समझ लिया कि ये काई खरीदार नहीं हैं! सामने आम रखे हैं
सब तरह के और ये पूछता है, सबसे कीमती आम कौन-से हैं। इसने कभी
आम खरीदे भी नहीं हैं। सो उसने मुझे सबसे सड़े-गले जो आम थे, वह
बता दिये कि ये सबसे कीमती आम हैं। मैंने कहा कि ठीक। तू दे दे सौ आम। वह भी चौंका,
थोड़ा सकुचाया भी--वह संकोच भी उसके चेहरे पर देखा--उसको भी थोड़ी लज्जा
लगी कि बिलकुल सड़े-गले आम! और जो कीमत उसने मुझसे बतायी थी, उतनी
कीमत मैंने उसको दे दी, कोई मोल-भाव किया नहीं, वे बड़े-गले आम लेकर मैं आ गया।
मैंने उनको कहा...मैं बड़ी मस्ती में आया कि सबसे बढ़िया आम खरीदकर
लाया हूं! मैंने अपनी बुआ को कहा कि ये आम...उन्होंने आम देखे और सिर पिट लिया। मैंने
कहा, क्यों?
उन्होंने कहा कि ये सड़े-गले आम हैं। ये तो कोई मुफ्त में भी नहीं लेगा।
ये तुम काहे के लिए उठा लाए? मैंने कहा कि मैंने कभी आम खरीदे
जिंदगी में? मैंने तो उससे ही पूछा भलेमानस से कि जो भी श्रेष्ठतम
आम हों और अच्छे से अच्छे हों और जो सबसे ज्यादा कीमती हो, वे
दे दे। उसने ये सबसे कीमती दिये हैं, दाम यह चुकाया है। उन्होंने
कहा, इस दाम के आम मैंने सुने भी नहीं। चौगुने दाम ले लिये उसने
अच्छे से अच्छे आमों से और ये सड़े-गले आम दे दिये। अब तुम ऐसा करो ये...बगल में एक
बुढ़िया रहती थी, घर में खाना वगैरह बच जाता तो उसको दे देते थे;
कोई था नहीं उसका...तुम ये आम उसको दे दो। मैंने कहा, ठीक है। मैं उस बुढ़िया का देने गया, उस बुढ़िया ने कहा,
ये आम घूरे पर फेंक दो। ऐसी चीजें कभी मेरे पास लाना मत! मैंने कहा,
जैसी मर्जी! मैं घूरे पर फेंक आया। मैंने कहा, वह बुढ़िया भी लेने को राजी नहीं है।
फिर उन्होंने मुझे सुधारने का प्रयास नहीं किया। कहा, बात ही खतम करो। तुम सुधारे
नहीं जा सकते। तुम बिलकुल बिगड़ चुके हो।
तेजराम मीणा,
तुम कहते हो कि यही मेरी हालत है, जो महावीर की
थी। यही हालत तुम्हारी नहीं हो सकती। कभी दूसरों का अनुकरण न करना। हां, अगर तुम घर में ही महावीर जैसे संन्यस्त होने की सामर्थ्य रखते होओ तो हो जाओ।
मगर पहली तो भूल तुमने की कि तुम मुझसे सलाह ले रहे हो। महावीर ने किसी से सलाह नहीं
ली थी। फिर दूसरी बात यह है कि तुम सिर्फ तरकीब निकाल रहे हो। तुम्हारे घर के लोग विरोध
में होंगे, लेकिन क्या तुम्हारी पत्नी ने कहा कि जब तक मैं हूं तब तक संन्यास मत लेना? यह नहीं कहा होगा तुम्हारी पत्नी
ने। और क्या तुम सोचते हो जब तुम्हारी पत्नी चल बसेगी तब तुम संन्यास ले लोगे?
और फिर मेरे संन्यास में तो कहीं जाना नहीं है, महावीर का तो जंगल जाना था।
तेरे संन्यास में तो तुम्हें घर ही रहना है। ध्यान करो, वहीं
ध्यान में डूब जाओ, कहीं जाने-आने का कोई सवाल ही कहां है?
पत्नी डरती होगी कि तुम संन्यास लोगे, घर छोड़ दोगे।
संन्यास की धारणा ही हमारी ऐसी हो गयी है। संन्यास शब्द ही सुनते प्राण कंपते हैं।
पत्नियां डर जाती हैं, बच्चे रोने लगते हैं, जैसे आदमी मर गया। मृत्यु से जैसी घबड़ाहट होती है वैसी संन्यास से होती है।
मैं तो संन्यास को नयी व्याख्या, नयी परिभाषा, नया रंग, नया जीवन दे रहा हूं। कहां छोड़ना है,
कहां जाना है, वहीं रहना है। इसलिए, इस संन्यास में तो कोई विरोध का करण नहीं है।
और फिर अगर तुम्हें लगता हो कि जैसा महावीर ने धैर्य रखा ऐसा तुम
भी रख सकते हो, तो
जरूर रख लो। मगर महावीर ने जो किया, वह करना। कि फिर घर में ऐसे
हो जाना जैसे हो ही नहीं। बिलकुल शून्यवत। तो फिर कोई मुझे अड़चन नहीं है। नहीं तो यह
होशियारी की बात हो जाएगी।
साहिब मिले साहिब भये
ओशो
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