पूरब के सभी धर्म इस बात पर सहमत हैं कि मौन की अंतिम उच्चतम दशा
में जो नाद सुनाई पड़ता है वह ओम के ही समान है।
पूरब की किसी भाषा में ओम को वर्णमाला में नहीं लिखा जाता है, क्योंकि यह भाषा का अंग नहीं है। यह एक प्रतीक के रूप में लिखा जाता है। इसलिए जो प्रतीक संस्कृत में प्रयोग किया जाता है, वही प्राकृत में, पालि में और तिब्बती में- सब जगह एक ही प्रतीक- क्योंकि सभी कालों के सभी रहस्यदर्शी एक ही अनुभव पर पहुंचे हैं कि यह लौकिक जगत का हिस्सा नहीं है; इसलिए इसे स्वर्णाक्षरों में नहीं लिखा जाना चाहिए। इसका अपना ही प्रतीक होना चाहिए, जो भाषा के पार का हो।
सभी संगीत- खासकर शास्त्रीय संगीत- मौन के नाद को पकड़ने का प्रयास करते रहे हैं, ताकि वे लोग भी कुछ वैसा ही अनुभव कर सकें जिन्होंने अपनी अंतरात्मा में प्रवेश नहीं किया है। किंतु वह संगीत वैसा नहीं होता। यह बहुत दूर की प्रतिध्वनि है। यहां तक कि महान संगीतज्ञों को भी ध्वनि का उपयोग करना पड़ता है। लेकिन वह उसे कितने ही सुंदर ढंग से क्यों न व्यवस्थित करे, वह संगीत पूर्णतः मौन नहीं हो सकता। संगीतज्ञ ध्वनियों के बीच मौन का अंतराल पैदा करता है, उसका सारा खेल ध्वनि और मौन का है। जो नहीं समझते हैं, वे ध्वनि को सुनते हैं। जो समझते हैं, वे मौन को सुनते हैं, दो ध्वनियों के बीच के अंतराल को सुनते हैं।
वास्तविक संगीत इन अंतरालों में है। इसे संगीतज्ञ पैदा नहीं करते। संगीतज्ञ तो ध्वनियां पैदा करता है, तरालों को छोड़ता जाता है, ताकि तुम उसका कुछ अनुभव कर सको जो रहस्य दर्शियों को उनके अंतःलोक में घटित होता है।
ओम सत्य के खोजियों की सबसे बड़ी उपलब्धि है। ऐसी अनेक घटनाएं हैं जो पूरी तरह अविश्वसनीय हैं, किंतु वे ऐतिहासिक हैं।
मारपा- एक तिब्बती रहस्यदर्शी- जब मरा, उसके निकटतम शिष्य उसके चारों ओर बैठे हुए थे... क्योंकि एक रहस्यदर्शी की मृत्यु उतनी ही महत्त्वपूर्ण होती है जितना उसका जीवन, या शायद कुछ अधिक ही। यदि तुम किसी रहस्यदर्शी की मृत्यु के समय उसके निकट हो सको तो उस समय तुम बहुत कुछ अनुभव कर सकते हो; क्योंकि उसकी संपूर्ण चेतना शरीर का त्याग कर रही है और यदि तुम सावधान और जागरूक हो तो तुम एक नई सुगंध का अनुभव कर सकते हो, एक नया प्रकाश देख सकते हो, एक नया संगीत सुन सकते हो।
मारपा जब मरा, वह एक मंदिर में रहता था। और अचानक शिष्य आश्चर्यचकित हो गए, वे अपने चारों ओर देखने लगे कि ओम का यह नाद कहां से आ रहा है। अंततः उन्होंने पाया कि यह नाद कहीं दूसरी जगह से नहीं बल्कि मारपा की देह से आ रहा है। उन लोगों ने अपने कान उसके हाथों से, पैरों से लगाकर सुना, वे भरोसा न कर सके- उसके संपूर्ण शरीर के भीतर कुछ तरंगायित था जो ओम का नाद पैदा कर रहा था। संबोधि के बाद मारपा जीवन भर इस नाद को सुनता रहा था। इस नाद को निरंतर भीतर सुनते रहने के कारण यह उसके भौतिक शरीर की कोशिकाओं तक में प्रवेश कर गया था। उसके शरीर का रेशा-रेशा एक विशिष्ट समस्वरता सीख गया था।
लेकिन ऐसा दूसरे रहस्यदर्शियों द्वारा भी अनुभव किया गया है। खासकर मृत्यु के क्षण में, जब सब कुछ अपने चरम बिंदु पर होता है, अंतर उस नाद की तरंगों को विकर्ण करने लगता है। लेकिन मनुष्य इतना अंधा और इतना अविवेकी है कि यह जानकर कि रहस्यदर्शी अपने भीतर मौन के संगीत को अनुभव करते हैं और वे इसे ओम कहते हैं, लोग ओम को मंत्र की तरह जपने लगे; यह सोच कर कि ओम के जाप से वे भी उसे सुनने में सक्षम हो जाएंगे।
इसको जपने से उस नाद को तुम कभी नहीं सुन सकोगे। जप करते समय तुम्हारा मन ही काम कर रहा है।
लेकिन इस बात को तुमसे कहने वाला संभवतः मैं पहला व्यक्ति हूं। अन्यथा सदियों से लोग ओम का जाप सिखा रहे हैं। वह एक मिथ्यानुभव पैदा करता है। और तुम मिथ्या में खो जा सकते हो और असली को कभी अनुभव नहीं कर सकोगे।
मैं तुमसे इसे जपने को नहीं कहता, बस शांत हो जाओ और इसे सुनो। जैसे तुम्हारा मन शांत और स्थिर होता है, अचानक तुम पाओगे कि एक फुसफुसाहट की तरह तुम्हारी अंतरात्मा में ओम उठ रहा है। जब यह स्वयं से पैदा होता है तो इसका गुणधर्म बिल्कुल अलग होता है। यह तुम्हें रूपांतरित कर देता है।
आधुनिक भौतिक विज्ञान कहता है कि संसार में सब कुछ विद्युत-ऊर्जा से बना है; और ध्वनि भी अन्य कुछ नहीं, विद्युत-तरंगें हैं। वैज्ञानिक बाहर से काम करते रहे हैं।
रहस्यदर्शी ठीक इसके विपरीत कहते हैं। लेकिन मैं उनमें विरोध नहीं देखता। रहस्यदर्शियों के अनुसार यह संपूर्ण अस्तित्त्व ध्वनिरहित ध्वनि- ओम- से बना है। यह विद्युत और अग्नि भी अन्य कुछ नहीं, ध्वनि का ही सघन रूप हैं।
पूरब में यह बात ज्ञात थी। ऐसे संगीतज्ञ हुए हैं जो अपने संगीत से दीपक को जला सकते थे। जैसे ही संगीत बुझे हुए दीपक के संपर्क में आता है, एकाएक लौ जल उठती है। अतीत में यह एक परीक्षण था कि कोई संगीतज्ञ जब तक अपने संगीत से प्रकाश, अग्नि, लौ नहीं उत्पन्न कर देता, वह अपरिपक्व समझा जाता था। वह सिद्ध आचार्य नहीं समझा जाता था।
भौतिकशास्त्र और रहस्यदर्शी की व्याख्याएं परस्पर विरोधी दिखाई पड़ती हैं, किंतु गहरे में संभवतः कोई स्रोत है जो विरोधाभासों और प्रतिरोधों को समाप्त कर सकता है। संभवतः ये मात्र भिन्न ढंग से व्याख्या करने का मामला है, क्योंकि रहस्यदर्शी भीतर से देख रहा है और भौतिकशास्त्री बाहर को। भौतिकशास्त्री जिसे विद्युत की तरह महसूस करता है, रहस्यदर्शी उसे संपूर्ण अस्तित्त्व के संगीत की तरह अनुभव करता है। वे दोनों भिन्न-भिन्न भाषाओं में कह रहे हैं। और अगर दोनों के बीच चुनाव करना पड़े तो मैं रहस्यदर्शी को चुनूंगा, क्योंकि वह उसे अपने केंद्र पर अनुभव कर रहा है। उसका अनुभव वस्तुओं पर किए गए प्रयोग का नहीं है। उसकी अनुभूति अपनी चेतना पर किए गए प्रयोग की है और चेतना अस्तित्त्व का नवनीत है।
ॐ मणि पद्मे हुम्
ओशो
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