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Saturday, October 12, 2019

आदमी क्यों जटिल है?


क्राइस्ट ने एक गांव से निकलते वक्त अपने मित्रों को कहा, लिली के फूलों की तरफ देखो। वह किस शांति से और ज्ञान से खड़े हैं; बादशाह सोलोमन भी अपनी पूरी गरिमा और गौरव में इतना सुंदर नहीं था। लेकिन फूल कितने सरल हैं, फल सरल हैं, पौधे सरल हैं, पशु-पक्षी सरल हैं।

आदमी भर जटिल है। इस पूरी पृथ्वी पर आदमी क्यों जटिल है, यह पूछने और विचारने-जैसी बात है। आदमी इसलिए जटिल है कि वह अपने सामने होने के आदर्श, आइडियल खड़ा कर लेता है और उनके होने के पीछे लग जाता है। उससे जटिलता पैदा होती है। जैसे आपने महावीर को देखा है, बुद्ध को देखा है, कृष्ण को देखा है, क्राइस्ट को देखा है, उनके जीवन को देखा है, उनके सत्य को देखा है, उनकी शांति को देखा है। आप सबके मन मैं लोभ पैदा होता है..वैसी शांति हो, वैसा सत्य हो, वैसा आलोक हो, वैसा जीवन हो। आप भी उन जैसे होने में लग जाते हैं। आप भी चाहते हैं, मैं भी उन जैसा हो जाऊं। एक आदर्श खड़ा कर लेते हैं और फिर उस आदर्श की तरह अपने को ढालने लगते हैं। जो आदमी किसी आदर्श को लेकर अपने को ढालना शुरू कर देता है वह बहुत जटिल हो जाता है।

वह इसलिए जटिल हो जाएगा कि इस संसार में दो कंकड़ भी एक-जैसे नहीं होते हैं। दो पत्ते भी एक..जैसे नहीं होते हैं। दो मनुष्य भी एक-जैसे नहीं होते हैं। जब भी कोई आदमी किसी दूसरे आदमी को आदर्श बना लेता है और उसके जैसा होने की चेष्टा में लग जाता है तभी जटिलता शुरू हो जाती है, तभी कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं। पूरा इतिहास इस बात का गवाह है कि दूसरा महावीर पैदा नहीं हो सकता, दूसरा बुद्ध पैदा नहीं हो सकता, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हो सकता, दूसरा क्राइस्ट पैदा नहीं होता। लेकिन फिर भी, नहीं मालूम कैसा पागलपन है कि हजारों लोग सोचते हैं कि हम भी उन जैसे हो जाएं! और जब आप उन जैसे होने में लग जाते हैं तो आप अपनी असलियत को दबाते हैं और दूसरे की सुनी हुई असलियत को ओढ़ने लगते हैं।


जब भीतर दो आदमी पैदा हो जाते हैं तो जो आप हैं वस्तुतः वह और जो आप होना चाहते हैं कल्पना में, इन दोनों के भीतर कठिनाई, इन दोनों के भीतर तनाव, इन दोनों के भीतर अंतद्र्वंद्व शुरू हो जाता है। तब आप चैबीस घंटे लड़ाई में लग जाते हैं और लड़ाई मनुष्य को जटिल हो जाता है। चैबीस घंटे आप लड़ रहे हज। हर आदमी के दिमाग में शिक्षा ने, संप्रदायों ने और धर्मों ने, तथाकथित उपदेशों ने यह भाव पैदा किया है कि आदर्श बनाओ। यह सबसे बड़ी झूठी बात है और सबसे खतरनाक है कि कोई आदमी केवल वही हो सकता है, जो वह है। कोई दूसरा आदमी नकल नहीं किया जा सकता और न दूसरे आदमी को ओढ़ा जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो उसकी निजी क्षमता है, वही विकसित हो, यह तो समझ में आता है। लेकिन एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति-जैसा होने की चेष्टा में लग जाए, यह बिल्कुल समझ में आने जैसी बात नहीं है।

महावीर को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए। इन पच्चीस सौ वर्षों में हजारों लोगों ने महावीर-जैसा नग्न होने का प्रयास किया है। लेकिन उनमें से एक भी महावीर नहीं बन पाया। बुद्ध को हुए पच्चीस सौ वर्ष हो गए। इस बीच लाखों लोगों ने बुद्ध जैसा बनने की चेष्टा की, लेकिन एक भी आदमी बुद्ध नहीं बन पाया। क्या आंखें खोलने को यह बात काफी नहीं है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं हो सकता है! और यह सौभाग्य की बात है कि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं हो सकता है, नहीं तो दुनिया अत्यंत घबराने वाली चीज हो जाए।


हर आदमी विविध है, हर आदमी अद्वितीय है, हर आदमी को अपनी गौरव-गरिमा है, हर आदमी के भीतर परमात्मा का अपना वैभव है। अपनी-अपनी निज की वृत्ति के भीतर बैठी हुई आत्मा है, उसकी अपनी क्षमता है, अद्वितीय क्षमता है। कोई मनुष्य न किसी दूसरे से ऊपर है, न नीचे है। न कोई साधारण है, न कोई असाधारण है। सबके भीतर एक ही परमात्मा अनेक रूपों में प्रकट हो रहा है। इसलिए बजाय इसके कि कोई आदमी किसी दूसरे को आदर्श बनाए, यही उचित है कि उसके भीतर जो बैठा है उसे जानने में लगा रहे..बजाय इसके कि उसके बाहर जो दिखाई पड़ रहे हैं उसका अनुकरण करे। अनुकरण जटिलता पैदा करता है। किसी दूसरे का अनुकरण हमेशा जटिलता पैदा करता है। वह ऐसे ही है कि एक ढांचा हम बना लेते हैं और फिर उस ढांचे के अनुसार अपने को ढालना शुरू कर देते हैं।

आदमी को जड़ वस्तु नहीं है। आदमी को पदार्थ नहीं है कि मशीनों में ले जाएं और ढाल दें। कल मैं एक कारखाना देखने गया और वहां हर चीज ढाली जा रही थी, हर चीज बनाई जा रही थी। कारखाने में एक-जैसी चीजें बनाई जा सकती हैं। क्यों? क्योंकि जो हम बना रहे हैं वह पदार्थ है। लेकिन मनुष्य एक-जैसा नहीं बनाया जा सकता। और जब भी मनुष्य को एक-जैसा बनाने की चेष्टा की जाती है तभी दुनिया में खतरा और सबसे बड़ी बुराइयां पैदा हो जाती हैं। हम इसी कोशिश में लगे हुए हैं कि हम किसी की भांति ढल जाएं एक ढांचे में, एक पैटर्न में, एक सांचे में। हम ढलकर निकल आएं। इससे बड़े दुर्भाग्य की बात और कोई नहीं होगी कि आप सांचे में ढलकर निकलें और कुछ बन जाएं। क्योंकि तब आप मिट्टी होंगे, मनुष्य नहीं होंगे, और तब आप पदार्थ होंगे, परमात्मा नहीं होंगे। चेतना स्वतंत्र है। उसकी अभिव्यक्तियां हमेशा नवीन से नवीन रास्ते खोज लेती हैं और चेतना इतनी स्वतंत्र है कि हमेशा अपना मार्ग बना लेती है। उसकी खूबी किसी सांचे में ढलने में नहीं, बल्कि अत्यंत सहज, स्फूर्त, स्वाभाविकता को उपलब्ध हो जाने में है। स्वतंत्रता को उपलब्ध करना है, किसी पराए रूप के पीछे जाकर अपने को नहीं ढाल लेना है।


घाट भुलाना बाट बिनु

ओशो 


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