मैं समझा दूंगा,
फिर तुम सैद्धांतिक रूप से समझ लोगे, फिर
व्यवहार में नहीं आएंगी। यह तो दुष्चक्र हो गया। उससे सार क्या होगा?
सैद्धांतिक रूप से चीजें समझ में आ जाती हैं, फिर भी व्यवहार में नहीं
आतीं--इससे एक बात समझो कि सैद्धांतिक समझ कोई समझ ही नहीं है। समझ तो वही है जो
व्यवहार में आ जाए। नहीं तो समझ का धोखा है। सैद्धांतिक समझ बिलकुल धोखा से भरी
समझ है। स्वभावतः मैं जो शब्द बोल रहा हूं, सीधे-साधे हैं।
ये तुम्हारी समझ में आ जाते हैं, मगर शब्दों के भीतर जो छिपा
है, वह शब्दों से बहुत बड़ा है। वह चूक जाता है। तुम शब्दों
की खोल तो इकट्ठी कर लेते हो, अर्थ चूक जाता है। फिर उस खोल
से क्या होगा? फिर उस खोल से कुछ सार नहीं।
और तुम्हारे मन में यह भी सवाल है कि जब सैद्धांतिक रूप से समझ
में आ गया तो व्यवहार में कैसे लाऊं?
सच तो यह है कि जब समझ में लाना नहीं होता, व्यवहार
में लाना पड़े तो भी मैं तुमसे कहूंगा कि समझ में नहीं आया। समझ में न आने वाले को
ही व्यवहार में लाने की चेष्टा करनी पड़ती है। जिसको समझ में आ गया, बात खत्म हो गई। व्यवहार में लाने की चेष्टा का सवाल ही नहीं है। अगर
तुम्हें समझ में आ गया कि सिगरेट पीने में जहर है, तो
तुम्हारे हाथ में आधी जली सिगरेट आधी जली ही रह जाएगी, वहीं
से गिर जाएगी, बात खत्म हो गई। अब तुम यह थोड़े ही कहोगे कि
अब अभ्यास करेंगे, अब सिगरेट छोड़ने का नियम लेंगे, अब व्रत करेंगे, अभी दस पीते थे, फिर नौ पीएंगे, फिर आठ पीएंगे, फिर सात पीएंगे, ऐसे धीरे-धीरे घटाएंगे। ऐसा वर्षों
में अभ्यास किया है पीने का, अब वर्षों लगेंगे घटाने में।
अगर इस तरह किया तो बात साफ है कि तुम्हें समझ में नहीं आई बात।
अगर तुम्हारे घर में आग लगी है तो तुम बाहर निकलने का अभ्यास
करते हो? तुम
कहते हो, निकलते निकलते निकलेंगे?--और
कोई एकदम से थोड़े ही निकल जाएं; पहले योगासन करेंगे, पहले शीर्षासन करेंगे, शास्त्र पढ़ेंगे, सत्संग करेंगे, श्रवण-मनन, निदिध्यासन,
फिर निकलते-निकलते निकलेंगे। अब इस घर में रहते भी कितना समय हो गया
है, एकदम से थोड़े ही निकल जाएं। लगी है आग लगी रहे। समझ में
तो आ गई बात कि आग लगी है, लेकिन अब इंतजाम तो करें निकलने
का।
तुम ऐसा करोगे?
तुम ऐसा कहोगे? घर में आग लगी होगी तो तुम न
तो शास्त्र में उलट कर देखोगे कि घर में निकलने का रास्ता क्या है, न गुरु की तलाश करोगे, न किसी से पूछोगे। झपट्टा
मारोगे और बाहर हो जाओगे। अगर सामने का दरवाजा जल रहा होगा तो खिड़की से कूद पड़ोगे।
लाज-संकोच भी न करोगे। अगर नंग-धड़ंग स्नान कर रहे हो तो वैसे ही भागकर बाहर निकल
आओगे। फिर यह भी न सोचोगे कि लोग कहीं जैन मुनि न समझ लें, कोई
झंझट न खड़ी हो जाए! वैसे ही निकल भागोगे। फिर कहां लोक-व्यवहार, फिर लोक-लज्जा! फुरसत कहां! और कोई तुम्हें दोष भी न देगा। कोई यह भी नहीं
कहेगा, कि अरे, कम से कम तौलिया तो
लपेट लेते। मगर जब घर में आग लगी हो तो तौलिया लपेटने के लिए भी कोई दोष नहीं
देगा।
जब चीजें समझ में आती हैं तो तत्क्षण परिणाम होता है। तत्क्षण
मैं कह रहा हूं। एक क्षण भी नहीं खोता। एक बात दिख जाती है, वहीं बात समाप्त हो जाती
है। व्यवहार में लानी नहीं पड़ती। व्यवहार में लाने पड़ने का तो एक ही अर्थ है:
तुम्हारी समझ में नहीं आई, तुम समझ का धोखा खा गए। भीतर-भीतर
कुछ और समझते रहे, ऊपर-ऊपर कुछ और समझ लिया। तुम्हारे भीतर
दोहरी समझ हो गई।
बौद्धिक समझ,
सैद्धांतिक समझ काम न आएगी। और तरफ की समझ चाहिए, जिसको आंतरिक समझ कहते हैं, हार्दिक समझ कहते हैं।
समग्र! पूरी की पूरी! जब मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं, तो एक
बात खयाल रखो: मैं तुम्हारा आचरण बदलने में उत्सुक नहीं हूं। लेकिन तुम अब तक
जितने लोगों के पास गए होओगे, वे सब तुम्हारा आचरण बदलने में
उत्सुक हैं। वे तुम्हें समझाते इसलिए हैं, ताकि तुम व्यवहार
में लाओ। और मैं तुम्हें इसलिए समझा रहा हुआ, ताकि तुम जाओ
व्यवहार इत्यादि का सवाल ही नहीं है। अगर जाग गए तो तुम्हारे जीवन में क्रांति
अपने से घट जाएगी।
हरि बोलो हरि बोल
ओशो
No comments:
Post a Comment