चैतन्य कीर्ति ने पूछा है कि एक जैन मुनि श्री मधुकर ने आपके खिलाफ
एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि संभोग से समाधि असंभव है।
जहां तक मुझे याद पड़ता है,
मधुकर मुनि मुझे मिले हैं। राजस्थान में ब्यावर में तीन दिन तक मुझे
रोज मिले हैं। और एक ही उनकी जिज्ञासा थी कि ध्यान कैसे लगे।
ध्यान का पता नहीं है और संभोग और समाधि की व्याख्या में लगे हैं!
दोनों शब्द एक ही बीज से निकले हैं: सम। संभोग भी और समाधि भी। जहां समता है, जहां सब सम्यक हो गया,
वहीं संभोग है। क्षण भर को होगा, लेकिन उस क्षण
भर को सब ठहर गया, सब सम हो गया, कुछ विषम
न रहा। कोई विचार न रहा, कोई चिंता न रही, कोई मैंत्तू का भाव न रहा, ऐसी ही घड़ी को तो संभोग कहते
हैं। वह एक क्षण को ठहरेगी, फिर खो जाएगी। समाधि ऐसा संभोग है
जो आया तो आया, फिर जाता नहीं है। अगर संभोग बूंद है तो समाधि
सागर है। मगर दोनों सम से ही बने हैं, खयाल रहे। संभोग शब्द को
गाली मत देना। उसे गाली दी तो तुम सम शब्द को गाली दे रहे हो।
लेकिन उन्हें ध्यान का तो कुछ पता नहीं, न समाधि का कुछ पता है। लेकिन
पंडित हैं तो उन्होंने व्याख्या कर दी समाधि की: सम + आधि। और संभोग रहेगा तब तो आधि
रहेगी, आधि से व्याधि पैदा होगी, व्याधि
से उपाधि पैदा होगी। चले! अब शब्द में से शब्द निकलते जाएंगे। समाधि का कोई अनुभव नहीं
है। समाधि की कोई झलक नहीं है। लेकिन समाधि शब्द की व्याख्या शुरू हो गई। और फिर व्याख्या
में अनर्थ तो होने वाला है।
समाधि की क्या व्याख्या की! कि जो आधियों के बीच अपने मन को संतुलित
रखता है। सुख आए कि दुख आए--आधियां आती हैं--सफलता मिले कि असफलता मिले, जो दोनों के बीच अपने मन को
सम रखता है वह समाधिस्थ।
मन को सम रखता है! मन कभी सम होता ही नहीं। मन है ही विषमता का नाम।
जब तक यह दिखाई पड़ रहा है कि यह सफलता है और यह असफलता, क्या खाक मन को सम रखोगे?
जिस दिन मन नहीं रहता उस दिन समता आती है। मन का अभाव है समता। मन कभी
सम नहीं होता। मन का तो स्वरूप विषम है। मन तो डांवाडोल ही रहेगा, नहीं तो मन ही न रहेगा।
लेकिन भाषा में हम इस तरह के उपयोग करते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक होटल खोली और पहला ही आदमी भीतर आया--चंदूलाल
मारवाड़ी। मुल्ला ने तो सिर पीट लिया कि यह कहां सुबह-सुबह मारवाड़ी दिखाई पड़ गया! और
पहले ही दिन होटल खोली है, हो गया बंटाढार! लेकिन अब क्या कर सकता था? कहा कि विराजिए;
क्या सेवा करूं?
चंदूलाल बोले कि बड़ी गर्मी है, बड़ी धूप पड़ रही है, एक पानी
का गिलास।
मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा,
पानी का गिलास असंभव। पानी का गिलास यहां है ही नहीं। गिलास में पानी
दे सकता हूं, लेकिन पानी का गिलास कहीं और खोजो। रास्ता पकड़ो।
भाषा में चल जाता है--पानी का गिलास। मगर मुल्ला नसरुद्दीन भी मुल्ला
है, मौलवी है। अरे
किसी मुनि से पीछे थोड़े ही है! किसी मधुकर मुनि से पीछे थोड़े ही है! आधि से व्याधि,
व्याधि से उपाधि--चले! उसने वहीं तरकीब निकाल ली। मारवाड़ी को वहीं ठंडा
कर दिया कि जा भाग, कहां पानी का गिलास मांग रहा है! पानी का
कहीं गिलास होता है?
तूफान आता है,
सागर में लहरें ही लहरें उठ आती हैं; उत्तुंग लहरें,
जैसे आकाश को छू लेंगी। नावें डांवाडोल होती हैं, डूबती हैं, जहाज टकराते हैं। फिर तूफान चला गया। तुम
कहते हो, तूफान शांत हो गया। लेकिन यह सिर्फ उसी तरह का शाब्दिक
उपयोग है, जैसे पानी का गिलास। तूफान शांत हो गया या नहीं हो
गया? तूफान शांत होने का अर्थ तो यह हुआ कि तूफान है तो,
मगर अभी शांत है। अगर शब्द को ही पकड़ो--और पंडित के पास कुछ और तो पकड़ने
को होता नहीं, सिर्फ शब्द ही पकड़ने को होते हैं। तूफान शांत है,
इसका अर्थ है कि तूफान तो है मगर शांत है। अब कब अशांत हो जाएगा,
क्या पता! जंजीरें डाल दी हैं, शांत बैठा है। है
तो। लेकिन जब तुम कहते हो तूफान शांत हो गया तो असल में तुम्हारा मतलब यह है कि तूफान
नहीं हो गया, अब तूफान नहीं है।
मन शांत नहीं होता। मन को शांत कहने का कोई अर्थ नहीं है। मन को
शांत कहने का अर्थ है: अमनी दशा। नानक ने कहा: अमनी दशा। मन नहीं रहा। वही शांत है
मन का होना।
जहां मन नहीं है वहां समाधि है।
सहज आसिकी नाहीं
ओशो
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