जीवन में द्वंद्व है। जीवन में सब जगह द्वंद्व है। प्रेम है, तो घृणा है। पाप है, तो पुण्य है। दिन है, तो रात है। जन्म है, तो मृत्यु है। जीवन में सब जगह द्वंद्व है। जीवन चलता ही द्वंद्व से है। जीवन द्वंद्वात्मक है।
यहां जीवन बिना मृत्यु के नहीं हो सकती; यहां सांझ कैसे होगी--बिना भोर के? यहां भोर कैसे होगी--बिना सांझ के? यहाँ सफलता कैसे होगी, अगर विफलता न होती हो? और अगर दुख न होता, तो सुख कैसे होगा?
यहां सब चीजें विपरीत से बंधी हैं। और इसीलिए यहां कोई कितना ही सुखी हो जाए, सुखी नहीं हो पाता, क्योंकि दुख उसके पीछे आता है; साथ-साथ आता है। दुख और सुख जुड़वां भाई हैं। और जुड़वां ही नहीं, जुड़े ही हुए हैं। एक ही देह है उनकी। शायद चेहरे दो होंगे, मगर देह एक है।
यहां नाम मिलता है, तो बदनामी मिलती है। यहां प्रतिष्ठा मिलती है, तो अप्रतिष्ठा साथ आ जाती है। यहाँ सिंहासन मिला, तो जल्दी धूल-धूसरित भी होना पड़ेगा।
ऐसा जीवन का सत्य है। इस सत्य को जो साक्षीभाव से देखने में सफल हो जाता है, जो चुनाव नहीं करता, जो निर्विकल्प हो जाता है, जो कहता हैः दुख आए तो ठीक, सुख आए तो ठीक। वे दोनों एक ही हैं, जुड़े ही हैं। चुनना क्या है?
दु:ख आता है, तो दु:खी नहीं होता जो; और सुख आता है, तो सुखी नहीं होता जो; उस आदमी के जीवन में एकरसता पैदा होती है। फिर उसको कैसे बांटोगे? दु:ख में दु:खी नहीं होता, सुख में सुखी नहीं होता। सम्मान में सम्मानित नहीं होता, अपमान में अपमानित नहीं होता।
इसी को साक्षीभाव कहा है।
यह जो साक्षीभाव है, यह धीरे-धीरे द्वंद्व के बाहर हो जाता है, क्योंकि द्वंद्व में उलझता ही नहीं। जब दु:ख आता है, तब वह जानता है, कि यह सब सुख का ही दूसरा चेहरा है। और सुख आता है, तब भी जानता है कि यह दु:ख का दूसरा चेहरा है। न यहां कुछ पकड़ने को है, न यहां कुछ छोड़ने को है। यहां चुनाव करना ही व्यर्थ है।
चुनाव किया कि फंसे। चुनाव किया कि संसार में उतरे। चुनाव संसार है। इसलिए विकल्प में संसार है और निर्विकल्प में समाधि, निर्विकल्प का अर्थ हैः अब मैं चुनता ही नहीं; देखता रहता हूँ।
सुबह आई--देखते रहे। सांझ आई--देखते रहे। क्या लेना-देना है? सुबह-सांझ की जो लीला चलती है--देखते रहे, देखते-देखते, एक दिन ऐसी घड़ी आती है कि तुम एकरस हो जाते हो। तुम्हारे भीतर द्वंद्व समाप्त हो जाता है।
उसकी एकरसता में परमात्मा से मिलन है। क्योंकि परमात्मा द्वंद्व के अतीत है। चरणदास कहते हैं--और सभी ज्ञानी कहते हैं--कि परमात्मा एकरस है। एकरस का अर्थ होता है; न तो जन्मा है, न कभी मरेगा। एकरस का अर्थ होता हैः न वहां दु:ख है, न वहां सुख है। इसलिए हमने एक नया शब्द दिया : आनंद। वहां आनंद है।
भूलकर भी आनंद को सुख का पर्यायवाची मत समझना। आनंद में सुख दु:ख दोनों का अभाव है। आनंद में उत्तेजना नहीं है। आनंद शांतिस्वरूपता है। सब शांत हो गया। सब तरंगे खो गई। कोई तरंग नहीं उठती। मन निस्तरंग हो गया। निस्तरंग होते ही मन नहीं हो गया।
सब दौड़-धूप गई; सब आपा-धापी गई। इस परम विश्रांति की अवस्था को हम ईश्वर की दशा कहते हैं।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है--कहीं बैठा हुआ। याद रखना। परमात्मा तुम्हारे भीतर छिपी हुई साक्षी की क्षमता है। तुम एकरस हो सकते हो, तुम ऐसी दशा में पहुंच सकते हो, जहां न भोर है, न सांझ। नहीं सांझ नहीं भोर। जहां समय ही नहीं है।
नहीं सांज नहीं भोर
ओशो
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