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Tuesday, October 1, 2019

मन का अतिक्रमण और मंत्र शक्ति


बस, घड़ी दो घड़ी, सुबह सांझ, जब अवसर मिल जाए, चुप होकर बैठ रहो। शिथिल हो जाओ, शांत हो जाओ। शरीर को निढ़ाल छोड़ दो। विश्राम की अवस्था को सजा लो। और फिर मन की धारा को देखते रहो। और कुछ भी न करो--न कोई मंत्र, न कोई रामनाम का जप, न कोई हनुमान चालीसा का पाठ, न कोई गायत्री न कोई नमोकार। बस चुपचाप...क्योंकि वे सब तो मन के ही खेल हैं। उनको दोहराओगे तो मन में ही अटके रह जाओगे। फिर साक्षी नहीं हो सकते।

यह जानकर तुम हैरान होओगे कि मंत्र और मन एक ही धातु से बनते हैं--दोनों शब्द। मंत्र मन का ही हिस्सा है, वह मन का ही तंत्र है। वह मन की ही व्यवस्था है। तो मंत्रों से कोई मन के पार नहीं जाता। हां, यह हो सकता है मंत्रों से मन की बहुत सी सूक्ष्म शक्तियां हैं, उनको जगा ले। मगर वह और नया उलझाव हो जाएगा। बाहर का धन इतना नहीं रोकता जितना फिर मन की शक्तियां रोकने लगती हैं।

रामकृष्ण के पास एक तपस्वी आया। रामकृष्ण बैठे थे गंगा के तट पर दक्षिणेश्वर में। देखते होंगे गंगा की धारा को बैठे-बैठे, और तो कुछ था नहीं करने को। उस तपस्वी ने कहा, "मैंने सुना है लोग तुम्हें परमहंस कहते हैं! तुम्हीं हो रामकृष्ण परमहंस? अकड़ कर कहा, क्योंकि तपस्वी की अकड़ तो होगी ही। जहां तपश्चर्या है वहां अकड़ है। बोध नहीं--अकड़, अहंकार। क्योंकि तपश्चर्या में साक्षी-भाव  नहीं है, क्रिया-भाव है, कर्ता-भाव है। उपवास किया। सिर के बल खड़ा रहा। एक हाथ उठा कर बारह वर्ष कोई खड़ा रहता है, कोई खड़ा है तो बैठता ही नहीं। कोई सिर के बल खड़ा है। इस सबसे तो कर्ता-भाव पैदा होता है। और जहां कर्ता भाव पैदा होता है वहां अस्मिता और अहंकार सघन होता है। और साधारणत:धन से भी इतना अहंकार पैदा नहीं होता जितना तप से पैदा होता है।

इसलिए मैं तपश्चर्या का पक्षपाती नहीं हूं। त्यागी सिर्फ अहंकार पैदा कर लेते हैं और कुछ भी नहीं। और स्वाभावत: सूक्ष्म अहंकार होगा। जिसके पास लाख रुपये थे उसके पास एक अकड़ थी, जेब में एक गर्मी थी कि लाख रुपये मेरे पास हैं! और यह लाख रुपये छोड़ देते हो तो एक नयी अकड़ पैदा होती है, जो पुरानी अकड़ से भी बड़ी है। यह कहता है, "मैंने लाख को लात मार दी!' लाख तो कई पर हैं, लेकिन लात मारने वाले कितने हैं? लाख वाले तो बहुत हैं, अकड़ होती भी तो कोई बहुत ज्यादा नहीं हो सकती थी। कोई लखपतियों की कमी है? दुनिया में बहुत हैं। तुम भी उनमें से एक। मगर लाख को लात मारने वाले तो बहुत कम हैं; अकड़ और सघन हो जाती है, और बड़ी हो जाती है।

तुम्हारे त्यागी तपस्वियों के चेहरों को जरा गौर से देखो। उनकी नाक पर अहंकार बैठा हुआ दिखाई पड़ेगा। नंगे बैठे हैं, लेकिन नंगे बैठे हैं इसलिए और अहंकार है, और अकड़ है कि देखते हो कि मैं नग्न बैठा हूं! उनकी आखें तुमसे कहती हैं कि तुम पापी हो, नर्कों में सड़ोगे। मैं हूं पुण्यात्मा! स्वर्ग का दावेदार हूं।


रामकृष्ण सीधे सादे आदमी थे--कोई तपस्वी नहीं, कोई त्यागी नहीं, कोई व्रती नहीं--सरलचित्त। और सरलचित्त जो है वही साधु है। साधु शब्द का अर्थ होता है, जो सादा है। और ये तुम्हारे तपस्वी सादे बिलकुल नहीं हैं, ये तो बड़े तिरछे हैं। इनका तो पूरा काम तिरछा है। अब अपने को भूखा मार कर कोई सीधा हो सकता है? तिरछा हो जाएगा। सिर के बल खड़े होकर कोई सीधा हो सकता है? यह तो और उल्टा हो गया। वैसे ही खोपड़ी गड़बड़ थी, अब और गड़बड़ हो जाएगी।


उस साधु ने बड़ी अकड़ से पूछा रामकृष्ण को कि तुम्हीं हो रामकृष्ण परमहंस? तो आओ मेरे साथ, चल कर गंगा को पार करें। मैं पानी पर चल सकता हूं, तुम चल सकते हो?


रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा कि नहीं, मैं तो नहीं चल सकता। मगर एक बात पूछूं, अगर बुरा न मानें, कितना समय लगा पानी पर चलने की यह कला सीखने में?

स्वभावत: उसने अकड़ से कहा, "अठारह वर्ष लगे!'

रामकृष्ण ने कहा कि मैं बहुत हैरान होता हूं, क्योंकि मुझे तो जब उस पार जाना होता है तो दो पैसे देकर उस पार चला जाता हूं। नाव वाला दो पैसे में पार करा देता है। दो पैसे का काम--अठारह वर्ष तुमने गंवा दिये और फिर भी अकड़ रहे हो! फायदा क्या है? और मुझे कभी साल में एकाध दो दफे जाना होता है उस पार। सो अठारह साल में समझो कि एकाध रुपये का खर्चा होता है उस पार। सो अठारह साल में समझो कि एकाध रुपये का खर्चा होता है सब मिला कर। एक रुपये की चीज तुमने अठारह साल में कमायी! और शर्म भी नहीं आती और संकोच भी नहीं लगता! और यूं अकड़े खड़े हो!


मंत्र से मन की सोई हुई शक्तियां जग सकती हैं, मगर तुम और जाल में पड़ जाओगे। पानी पर चलने लगे तो और जाल में पड़े। कहीं राख निकालना सीख गये हाथ से तो और जाल में पड़े। कहीं किसी को छू कर बीमारी दूर करना आ गया तो और जाल में पड़े।

मन के पार जाना है। मन से मुक्त होना है। मन का अतिक्रमण करना है। यह मन के अतिक्रमण का सूत्र है: प्रतिरोध न करें, स्वीकार-भाव रखें और साक्षी बनें। बस देखते रहें।

मैं अपने संन्यासियों को इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं सिखाता हूं--मात्र देखते रहो। जीवन एक लीला है। तुम दर्शक बनो, द्रष्टा बनो। जैसे कोई फिल्म देखता है, नाटक देखता है--बस ऐसे। खुद का जीवन भी यूं देखो, जैसे यह भी एक अभिनय है। यह पत्नी, ये बच्चे, यह परिवार, यह धन दौलत, छोड़ कर भागनी की कोई जरूरत नहीं, सिर्फ इतना जानो--अभिनय है। चलो तुम्हें यह अभिनय करना रहा है। यह बड़ी मंच है पृथ्वी की, इस पर सब अभिनेता हैं। और जिसने अपने को समझा कि मैं कर्ता हूं वही चूक गया। और जिसने अपने को अभिनेता जाना वही पा गया है। पाने की बात दूर नहीं है।

ज्यूँ मछली बिन नीर 

ओशो

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