....पश्चिमी फिरंगियों ने तो सैकड़ों वर्षों
तक हमें लूटा, हमारा रक्त चूसा और हमारी पवित्र मानसिकता
में अपनी भोगलिप्सा से भरी दूषित संस्कृति के कीटाणु छोड़ गये। और आज हमारे युवक
अपनी स्वर्णिम संस्कृति को भूल कर उनका अंधानुकरण कर रहे हैं। क्या समय रहते अपनी
संस्कृति को बचा लेना जरूरी नहीं है? क्या आपका भारत के
प्रति कोई कर्तव्य नहीं है?
विद्याधर वाचस्पति,
मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूं। यही मेरा
कर्तव्य है! कर्तव्य का अर्थ होता है: करने योग्य। आज जो करने योग्य है वही कर रहा
हूं।
लेकिन तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। इसके
एक-एक टुकड़े पर विचार कर लेना जरूरी है। पहली बात--तुम कहते हो: "आप पश्चिमी सभ्यता
का इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय संस्कृति का इतना विरोध क्यों करते हैं?' इसलिए कि पश्चिमी सभ्यता ऐसी है जैसे बुनियाद तो डाल दी गयी हो मंदिर
की और मंदिर न उठाया गया हो। और पूर्वीय सभ्यता ऐसी है कि बुनियाद तो कभी डाली
नहीं गयी, मंदिर का सपना देखा जा रहा है।
पश्चिमी सभ्यता
यानी विज्ञान और पूर्वीय सभ्यता यानी अध्यात्म। लेकिन बिना विज्ञान के अध्यात्म
नपुंसक होगा, उसकी बुनियाद के पत्थर जुटाने होंगे। और वे
पत्थर विज्ञान ही जुटा सकता है। उन पत्थरों को जुटाने का अध्यात्म के पास कोई उपाय
नहीं। हां, अध्यात्म तो मंदिर बना सकता है। अध्यात्म तो
मंदिर का शिखर होगा। स्वर्ण-शिखर! मगर स्वर्ण-शिखर अकेला रहे तो मंदिर नहीं बनता।
रखे बैठे रहो स्वर्ण-शिखर को, किसी काम का नहीं है,
थोथा है।
विज्ञान पहली चीज है, क्योंकि शरीर मनुष्य का
आधार है और आत्मा मनुष्य आत्यांतिक आविष्कार। वह अंतिम बात है। पहले विज्ञान,
फिर धर्म।
भारत एक बुनियादी भूल में पड़ा है। इसने
विज्ञान का तिरस्कार किया, उसका फल भोग रहा है। विज्ञान के तिरस्कार के कारण तुम दो हजार साल
गुलाम रहे हो, किसी और कारण से नहीं। और अभी भी विज्ञान
का तिरस्कार किया तो तुम भ्रांति में ही हो कि तुम स्वतंत्र हो, तुम्हारी स्वतंत्रता दो मिनट में मिटाई जा सकती है। क्या करोगे तुम
अणुबम के मुकाबले? क्या करोगे तुम हाइड्रोजन बम के
मुकाबले? तुम्हारी स्वतंत्रता दूसरों की कृपा पर निर्भर
है, खयाल रखना। तुम्हारी स्वतंत्रता दो क्षण में मिटाई जा
सकती है।
और हमें शर्म भी नहीं आती यह कहते हुए कि
फिरंगियों ने हमें गुलाम किया। तो तुम गुलाम हुए क्यों? इतना बड़ा देश, चालीस करोड़ का देश, कुल तीन करोड़ संख्या वाले
देश का गुलाम हो गया। चुल्लू भर पानी में डूब मरो, इसके
पहले कि इस तरह के प्रश्न पूछो! शर्म भी नहीं आती! चालीस आदमियों को तीन आदमी
गुलाम बना लें और फिर भी गाली दें कि इन दुष्टों ने हमें गुलाम बना लिया! तो तुम
करते क्या रहे? तुम भाड़ झोंकते रहे? तुमसे कुछ भी न हो सका? इतना तो कर सकते थे,
कम से कम आत्महत्या करके मर ही जाते। वह भी तुमसे न हो सका। और
तुम तो आत्मा की अमरता में विश्वास करने वाले लोग, तुम्हें
कम से कम मर तो जाना ही था। कुछ और न कर सकते थे तो मर तो सकते थे। तो लाशें पड़ी
रह जातीं। फिर जिनको लाशों पर मालकियत करनी होती वे कर लेते, वे खुद ही भाग गये होते। लाशों की सड़ांध ऐसी उठती,चालीस करोड़
लाशें जरा सोचो तो, पूरा मुल्क कब्रिस्तान हो जाता!
अंग्रेज तो भाग गये होते।
लेकिन तुम गुलाम इतने जल्दी हो गये। तुम
अंग्रेजों के कारण गुलाम नहीं हुए,
तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों के कारण तुम गुलाम हुए हो। और जब
तक तुम यह सत्य नहीं समझोगे, तुम फिर-फिर गुलाम होओगे।
तुम्हारे भाग्य में गुलामी है फिर। यह तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों की कृपा है कि
उन्होंने तुम्हें उल्टी बातें सिखायीं। उन्होंने जीवन की बुनियाद तो तुम्हें दी
नहीं और जीवन के शिखर की बकवास शुरू कर दी। क ख ग सिखाया नहीं और तुम्हारे हाथ में
कालिदास के शास्त्र पकड़ा दिये बड़े-बड़े। छोटे बच्चे के हाथ में जैसे कोई तलवार थमा
दे, तो या तो वह खुद को नुकसान पहुंचाएगा या किसी और को
नुकसान पहुंचाएगा।
तुम दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता हो।
तुम्हारे पास तो विज्ञान परम शिखर पर होना चाहिए था। लेकिन तुम्हारे तथाकथित
धर्मगुरु तुम्हें भगोड़ा बनाते रहे,
पलायनवादी बनाते रहे। कहते रहे--"संसार तो माया है। और जो
होना है वह तो परमात्मा की कृपा है। उसके बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता।' तो फिरंगियों ने तुम पर कब्जा कैसे कर लिया? फिरंगी
तो तुम्हारे परमात्मा से भी ताकतवर मालूम होते हैं!
तुम कहते हो कि पश्चिमी फिरंगियों ने तो
सैकड़ों वर्षों तक हमें लूटा। तुम लुटे क्यों?
तुमसे कुछ करते न बना? तुम इतने नपुंसक?
क्यों तुम इतने नपुंसक? तुम्हारे पास
वैज्ञानिक साधन न थे। तुम मूढ़ताओं से भरे हुए लोग हो। और तुम अपनी मूढ़ता को अभी भी
बचाना चाहते हो और मुझसे कहते हो कि मैं भी अपना कर्तव्य पूरा करूं--तुम्हारी
मूढ़ता बचाने के लिए! जिस मूढ़ता के कारण तुम परेशान रहे हो उसको में मिटा कर
अपना कर्तव्य पूरा कर रहा हूं। और किस तरह कर्तव्य पूरा किया जा सकता है?
जरूर मेरी बात जहर की तरह लगेगी, लेकिन मेरी मजबूरी है। किसी
को कैंसर हो तो ऑपरेशन तो करना ही होगा। और तुम जिसको संस्कृति कह रहे हो, वह तुम्हारा कैंसर है। उसका आधार ही नहीं है कोई। धर्म की बकवास है
तुम्हारे पास। और तुम्हारी बकवास कुछ काम न आयी। तुम हमेशा गलत चीजों की वजह से
हारे। इसमें किसी का दोष नहीं है। जब सिकंदर ने भारत पर हमला किया और पोरस हारा,
तो हारने का कारण क्या था? हारने का
कारण यह था कि पोरस हाथियों को लेकर लड़ने गया और सिकंदर घोड़ों को लेकर लड़ने आया
था। उस जमाने में घोड़े विकसित साधन थे हाथियों के मुकाबले। हाथी कोई बारात वगैरह
निकालनी हो तो ठीक, कि किसी संत-महात्मा का अखाड़ा निकालना
हो तो ठीक। युद्ध के लिए हाथी ठीक नहीं हैं। जगह भी ज्यादा घेरते हैं, दौड़ भी सकते, घोड़े के मुकाबले उनकी क्षमता भी
नहीं होती। उनके चलने-फिरने के लिए भी जगह काफी चाहिए। घोड़े छोटी जगह में से निकल
जाएं। घोड़े में गति भी होती है तीव्रता भी होती है, त्वरा भी होती है। हाथी को तो मोड़ना ही हो तो आधा घंटा लग जाए। पोरस
हारा हाथियों की वजह से। पोरस हारा अविकसित साधनों की वजह से।
दो हजार साल में किन-किन ने तुम्हें गुलाम
बनाया, जरा
सोचो तो! जो आया उसी ने तुम्हें गुलाम बनाया। हूण आए, बर्बर
आए, तुर्क आए, मुगल आए--जो भी
आया: तुम जैसे गुलाम बनने को तैयार ही बैठे थे! तुम एक भी नहीं जूझ सके। और फिर भी
तुम अकड़ से कह पाते हो कि इन्होंने हमें गुलाम बनाया!
तुम गुलाम बने! तुम गुलाम बनने के लिए बैठे
थे। तुम तो झोली पसारे बैठे थे कि आओ,
हमें गुलाम बनाओ। तुम्हारे पास हमेशा अविकसित साधन थे। जो भी आया
उसके पास विकसित साधन थे। और आज भी तुम्हारी स्वतंत्रता का क्या मूल्य है! कमजोर
की स्वतंत्रता का क्या मूल्य हो सकता है?
चीन ने तुम्हारी
जमीन पर कब्जा कर लिया, तुमने क्या कर लिया? अब तो तुम स्वतंत्र हो, कुछ तो करके दिखा
देते! लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा, "उस जमीन
का क्या करेंगे? उस पर तो घास भी पैदा नहीं होता।'
तो फिर लड़े ही काहे को? ऐसी भी तुम्हारे
देश में पैदा ही क्या होता है? कम से कम मिलिट्रिरी को ही
विदा करो, यह झंझट छोड़ो। सत्तर प्रतिशत देश का धन सेना पर
खर्च होता है। काहे के लिए खर्च कर रहे हो? इसको ही बचा
लो कम से कम। कुछ गरीबों के पेट भरेंगे, दरिद्रनारायण की
कुछ सेवा होगी, कुछ मंदिर बना लो, कुछ धर्मशालाएं बना लो। काहे को...और ऐसे भी क्या पैदा होता है?
जो भी आएगा सो खुद ही परेशान हो कर लौट जाएगा।
क्या क्या सांत्वनाएं खोजते हो! दो हजार साल
से निरपवाद रूप से जो भी आया...वे कैसे कैसे छोटे-छोटे लोग आए! हूणों की कोई
संख्या नहीं थी। मगर जो आया, तुम उसके ही पैर चूमने को राजी हो गये।
और मैं तुमसे यह कह देना चाहता हूं, तुम अपने कारण आजाद नहीं
हुए हो। इस भ्रांति को छोड़ दो। तुम्हारे राजनेता लाख तुम्हें समझाएं, तुम अपने कारण आजाद नहीं हुए हो। क्योंकि तुमने क्रांति तो
उन्नीस सौ बयालीस में की थी, आजाद सैंतालीस में
हुए! यह तो खूब मजा हुआ। दुनिया में कभी कोई ऐसी क्रांति देखी? उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई तो उन्नीस सौ सत्रह में
क्रांति हुई कि उन्नीस सौ बाइस में जा कर सफलता मिली? उन्नीस
सौ बयालीस में तुमने क्रांति की और उन्नीस सौ सैंतालीस में जाकर तुम आजाद हुए! इस
आजादी में तुम्हारा कुछ भी नहीं है।
इस आजादी में तुम भ्रांति में मत पड़ना कि
तुम्हारा कोई बहुत बड़ा दान है, योगदान है। इस आजादी में
भी तुम पर पश्चिम की कृपा है। गुलामी भी उन्होंने दी थी तुम्हें, आजादी भी दे दी उन्होंने तुम्हें। और आज तुम्हारी आजादी छीनी जा सकती
है।
अभी चीन तुम पर कभी भी सवार हो सकता है। अगर नहीं सवार होता तो रूस के कारण,
तुम्हारे कारण नहीं। और चीन सवार नहीं होगा तो रूस सवार होगा।
तुम तो खच्चर हो, तुम पर कोई न कोई सवार होगा। तुम किसी न
किसी को ढोओगे।
इसलिए मैं कहता हूं, पहले विज्ञान। यह भूल
बहुत हो चुकी, दस हजार साल में यह भूल बहुत हो चुकी। अब
विज्ञान और विज्ञान की तकनीक...! मगर तुम्हारे मूढ़ महात्मा तुमको समझाते हैं चरखा
कातो। अगर में उनका विरोध करता हूं तो तुमको लगता है कि मैं तुम्हारी दुश्मनी कर
रहा हूं। कातो चरखा! चरखा कातने से कोई अणु-बम का मुकाबला नहीं हो सकेगा। तुम
कातते रहना चरखा! तुम फिर गुलाम होओगे। कोई तुम्हें समझा रहा है खादी पहनो। कोई
तुम्हें समझा रहा है तीन ही वस्त्र अपने पास रखो। कोई तुम्हें समझा रहा है
ब्रह्मचर्य साधो। कोई तुम्हें समझा रहा है उपवास करो, कोई
तुम्हें समझा रहा है कि सिर के बल खड़े होओ, योगासन करो।
कोई कह रहा है पद्मासन लगाओ, सिद्धासन लगाओ। यह तुम
लगाते ही रहे दस हजार साल से और तुमने किया ही क्या?
मैं तुमसे कहता हूं, विज्ञान को जन्मा लो,
समय रहते ही जन्मा लो। हमने बड़ी से बड़ी भूल जो की है अतीत
में, वह थी--विज्ञान को नहीं जनमाया। और हम जनमा सकते थे,
क्योंकि हमारे पास कोई विचारकों की कोई कमी न थी, चिन्तकों की कोई कमी न थी। मगर हमने चिन्तकों और विचारों को गलत मोड़
दिया। हमने उनको भगोड़ा बना दिया, पलायनवादी बना दिया।
हमारे सारे विचारक और चिन्तक पहाड़ों में चले गये, गुफाओं
में चले गये। अगर अल्बर्ट आइंस्टीन यहां पैदा होता तो बैठे होते किसी हिमालय की
गुफा में और जप रहे होते राम राम या हनुमान चालीसा पढ़ रहे होते। वह तो सौभाग्यशाली
है कि यहां पैदा नहीं हुआ, नहीं तो तुमने बर्बाद कर दिया
होता।
अब हनुमान चालीसा पढ़ोगे तो ठीक है, हनुमान जैसी बुद्धि हो
जाएगी तुम्हारी भी। इससे ज्यादा आशा भी क्या कर सकते हो? कोई
झाड़ों को पूज रहा है। संस्कृति को तुम मुझसे बचाने को कह रहे हो? इसमें बचाने योग्य क्या है? इस कूड़ा करकट को
बचाने की बात कर रहे हो?
और तुम कहते हो कि आप पश्चिमी सभ्यता का
इतना ज्यादा समर्थन और भारतीय संस्कृति का इतना विरोध क्यों करते हैं? इसलिए कि भारत से मुझे
प्रेम है। मैं चाहता हूं कि यह भी दुनिया में अपना स्थान पाए, सम्मानपूर्वक अपना स्थान पाए। और यह विज्ञान के बिना नहीं हो सकता है।
भारत को विज्ञान सीखना होगा, पश्चिम को अध्यात्म सीखना
होगा। तब यह सारी मनुष्यता एक संतुलन पर आएगी।
ज्यूँ मछली बिन नीर
ओशो
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