मैंने सुना है: अमृतसर से एक रेलगाड़ी दिल्ली
की तरफ रवाना हुई। सरदार विचित्तर सिंह को जोर से लघुशंका लगी थी। जाकर
सरदारी-झटके से संडास का दरवाजा खोल दिया। झांक कर देखा; दर्पण में अपना चेहरा
दिखाई पड़ा! जल्दी से कहा, माफ करिए सरदार जी! दरवाजा बंद
कर दिया! मगर लघुशंका जोर से लगी थी। पांच मिनट सम्हाला, दस
मिनट सम्हाला। मगर यह भीतर जो सरदार घुसा है, निकला ही
नहीं, निकला ही नहीं! फिर जा कर दरवाजा खटखटाया, मगर जवाब भी न दे! फिर खोला। सरदार मौजूद था! कहा, माफ करना सरदार जी! फिर बंद कर दिया।
लेकिन अब सम्हालना मुश्किल हो गया। संयम की
भी सीमा है! तभी कंडक्टर आ गया। तो विचित्तर सिंह ने कहा कि हद्द हो गई! एक आदमी
अंदर घुसा है, सो घंटे भर से निकलता ही नहीं है! कंडक्टर ने कहा, देखो, मैं जाता हूं।
कंडक्टर ने झांका। कंडक्टर भी सरदार! जल्दी
से दरवाजा बंद कर के विचित्तर सिंह को कहा कि भई, तुम दूसरे डब्बे के संडास में चले जाओ। भीतर
तो कंडक्टर है! देखा कि ड्रेस वगैरह कंडक्टर की है!
वह जो दर्पण है, वह सिर्फ सरदारों को ही
धोखा दे रहा है--ऐसा मत सोचना। दर्पण सब को धोखा दे रहा है। और जीवन में बहुत तरह
के दर्पण हैं। हर आंख एक दर्पण है।
मां की आंख में बच्चा अपने को झांकता है, तो उसे पहले प्रतीति
होती है कि मैं कौन हूं। वह प्रतीति जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती। वह दुई छाया की तरह
पीछे लगी रहती है। क्योंकि मां ने जैसा अगाध, बेशर्त
प्रेम दिया, वैसा कौन देगा! कुछ मांगा नहीं। बच्चे के पास
देने को कुछ था भी नहीं। बच्चा कुछ भी नहीं देता है; मां
सब देती है। इससे एक भ्रांति पैदा होती है, कि बच्चे को
यूं लगता है कि लेने का मैं हकदार हूं!
दर्पण से धोखा खा गया। अब वह जिंदगी भर
मांगेगा कि--दो। पत्नी से मांगेगा। मित्रों से मांगेगा। जहां जाएगा--कहीं छिपी
भीतर आकांक्षा रहेगी कि प्रेम दो। प्रेम मैं दूं--यह तो बात ही नहीं उठेगी।
क्योंकि पहला दर्पण जो मिला था,
वह मां का दर्पण था। उस दर्पण से जो उसे छवि दिखाई पड़ी थी,
वह यह थी कि मैं जैसा हूं, प्रेम का
पात्र हूं। प्रेम मुझे मिलना चाहिए; यह मेरा हक है,
अधिकार है। प्रेम को अर्जित नहीं करना है; बिना अर्जित मिलता है। और जीवन भर दुखी होगा, क्योंकि
पत्नी मां नहीं होगी। मित्र मां नहीं होंगे। यह समाज मां नहीं होगा। फिर मां कहां
मिलेगी? फिर मां कहीं भी नहीं मिलेगी। इस बड़ी दुनिया में
हर जगह दुतकारा जाएगा। और कठिनाई यह है कि इस बड़ी दुनिया में जो भी लोग मिलेंगे,
उन सबने मां के दर्पण में अपने चेहरे को देखा है। वे भी मांग रहे
हैं कि दो!
तो मांग उठ रही है कि दो। प्रेम दो। पत्नी
पति से मांग रही है। पति पत्नी से मांग रहा है। मित्र मित्र से मांग रहा है। देने
वाला कोई भी नहीं! मांगने वालों की भीड़ है,
जमघट है। मांगने वाले, मांगने वालों से
मांग रहे हैं! भिखारी भिखारी के सामने हाथ फैलाए खड़े हैं! दोनों के हाथों में
भिक्षा-पात्र है।
वह जो दुई पैदा हो गई दर्पण से, अब अड़चन आएगी; अब छीना-झपटी शुरू होगी। जब नहीं मिलेगा मांगे से, तो छीनो--झपटो--जबर्दस्ती लो। इस जबर्दस्ती का नाम ही राजनीति है। नहीं
मिलता मांगे से, तो क्या करें! फिर येन केन प्रकारेण,
जैसे भी मिल सकता हो--लो।
कैसी-कैसी विडंबनाएं पैदा हो जाती हैं! लोग
प्रेम के लिए वेश्याओं के पास जा रहे हैं! सोचते हैं, शायद पैसा देने से मिल
जाएगा! पैसा देने से प्रेम कैसे मिलेगा? प्रेम तो खरीदा
नहीं जा सकता। सोचते हैं, बड़े पद पर होंगे, तो मिलेगा। लेकिन कितने ही बड़े पद पर हो जाओ, प्रेम
नहीं मिलेगा। हां, खुशामदी इकट्ठे हो जाएंगे। लेकिन
खुशामद प्रेम नहीं है।
लाख अपने को धोखा देने की कोशिश करो, दे न पाओगे। एक तसवीर
देखी थी पिता की आंखों में, वह धोखा हो गई। एक तसवीर देखी
थी भाई-बहनों की आंखों में, वह धोखा दे गई। एक तसवीर देखी
थी भाई-बहनों की आंखों में, वह धोखा दे गई। फिर तस्वीरें
ही तस्वीरें हैं--अपनी ही तस्वीरें--लेकिन दर्पण अलग-अलग। तो अपनी ही कितनी
तस्वीरें देख लीं। हर दर्पण अलग तसवीर दिखलाता है।
एक तसवीर देखी पत्नी की आंखों में, पति की आंखों में। एक
तसवीर देखी अपने बेटे की आंखों में, बेटी की आंखों में।
एक तसवीर देखी मित्र की आंखों में, एक तसवीर देखी शत्रु
की आंखों में। एक तसवीर देखी उसकी आंखों में--जो न मित्र था, न शत्रु था; जिसको परवाह ही न थी तुम्हारी।
लेकिन तसवीर तो हर दर्पण में दिखाई पड़ी। ऐसे बहुत-सी अपनी ही तस्वीरें इकट्ठी हो
गई। हमने अलबम सजा लिया है! दुई ही नहीं हुई--अनेकता हो गई! एक दर्पण में देखते,
तो दुई होती।
रज्जब ठीक कहते हैं, ज्यूं मुख एक, देखि दुई दर्पन! देखा नहीं दर्पण में कि दो हुआ नहीं। इसलिए द्वैत हो
गया है। है तो अद्वैत। स्वभाव तो अद्वैत है। एक ही है। लेकिन इतने दर्पण
हैं--दर्पणों पर दर्पण हैं! जगह-जगह दर्पण हैं! और तुमने इतनी तस्वीरें अपनी
इकट्ठी कर ली हैं कि अपनी ही तस्वीरों के जंगल में खो गए हो। अब आज तय करना
मुश्किल भी हो गया कि इसमें कौन चेहरा मेरा है! जो मां की आंख में देखा था--वह
चेहरा? कि जो पत्नी की आंखों में देखा--वह चेहरा? कि जो वेश्या की आंखों में देखा--वह चेहरा? कौन-सा
चेहरा मेरा है? जो मित्र की आंखों में देखा--वह? या जो शत्रु की आंखों में देखा--वह?
जब धन था पास, तब जो आंखें आसपास इकट्ठी हो गई थीं,
वह चेहरा सच था; कि जब दीन हो गए,
दरिद्र हो गए--अब जो चेहरा दिखाई पड़ रहा है? क्योंकि अब दूसरी तरह के लोग हैं।
एक बहुत बड़ा धनी बरबाद हो गया। जुए में सब
हार गया। मित्रों की जमात लगी रहती थी,
मित्र छंटने लगे। उसकी पत्नी ने पूछा...। पत्नी को कुछ पता नहीं।
पत्नी को उसने कुछ बताया नहीं--कि हाथ से सब जा चुका है; अब
सिर्फ लकीर रह गई है--सांप जा चुका है। तो पत्नी ने पूछा कि क्या बात है! बैठक
तुम्हारी अब खाली-खाली दिखती है? मित्र नहीं दिखाई पड़ते।
आधे ही मित्र रह गए!
पति ने कहा, मैं हैरान हूं कि आधे भी क्यों रह गए हैं!
शायद इनको अभी पता नहीं। जिनको पता चल गया, वे तो सरक गए।
पत्नी ने कहा, क्या करते हो! किस बात का पता?
पति ने कहा, अब तुझसे क्या छिपाना। सब हार चुका हूं। जो
धन था--हाथ से निकल चुका है। सब जुए में हार चुका। जो मेरे पास इकट्ठे थे लोग,
वे धन के कारण थे, यह तो आज पता चला!
जिन-जिन को पता चलता जा रहा है कि अब मेरे पास कुछ भी नहीं है, वे खिसकते जा रहे हैं। ठीक है: गुड़ था, तो
मक्खियां थीं! अब गुड़ ही नहीं, तो मक्खियां क्यों?
फूल खिले थे, तो भंवरे आ गए थे। अब फूल
ही गिर गया, मुरझा गया, तो
भंवरों का क्या!
पत्नी ने यह सुना और बोली कि मेरे पिता ठीक
ही कहते थे कि इस आदमी से शादी मत करो। यह आज नहीं कल गङ्ढे में गिराएगा। मैं
मायके चली!
पति ने कहा, क्या कहती हो! तुम भी छाड़ चलीं! पत्नी ने
कहा, अब यहां रह कर क्या? अपने
जीवन को बरबाद करना है!
यहां लोग सब कारणों से जुड़े हैं। अकारण तो
प्रीति कहां मिलेगी? और जब तक अकारण प्रीति न मिले, तब तक प्राण
भरेंगे नहीं।
यहां तो सब कारण हैं। लोग शर्तबंदी किए हुए
हैं!
एक मित्र अपने बहुत प्रगाढ़ हितैषी से कह रहा
था कि दो स्त्रियों के बीच मुझे चुनाव करना है--किससे शादी करूं? एक सुंदर है--अति सुंदर
है, लेकिन दरिद्र है, दीन है। और
एक अति कुरूप है, पर बहुत धनी है। और अकेली बेटी है बाप
की। अगर उससे विवाह करूं, तो सारा धन मेरा है। कोई और
मालिक नहीं उस धन का। बाप बूढ़ा है। मां तो मर चुकी, बाप
भी आज गया, कल गया! लेकिन स्त्री कुरूप है। बहुत कुरूप
है! तो क्या करूं, क्या न करूं?
उसके मित्र ने कहा कि इसमें सोचने की बात
है! अरे, शर्म
खाओ। प्रेम और कहीं धन की बात सोचता है। जो सुंदर है, उससे
विवाह करो। प्रेम सौंदर्य की भाषा जानता है--धन की भाषा नहीं। जो सुंदर है,
उससे विवाह करो।
मित्र ने कहा, तुमने ठीक सलाह दी। और जब मित्र जाने लगा,
तो उसके हितैषी ने पूछा कि भई, और उस
कुरूप लड़की का पता मुझे देते जाओ!
इस दुनिया में सारे नाते-रिश्ते बस, ऐसे हैं! फिर ये सारी
तस्वीरें इकट्ठी हो जाती हैं। फिर यह तय करना ही मुश्किल हो जाता है कि मैं कौन
हूं। और अपने को तो तुमने कभी जाना नहीं; सदा दर्पण में
जाना!
तुमने कभी किसी म्यूजियम में अनेक तरह के
दर्पण देखे! किसी में तुम लंबे दिखाई पड़ते हो। किसी में तुम ठिगने दिखाई पड़ते हो।
किसी में तुम मोटे दिखाई पड़ते हो। किसी में तुम दुबले दिखाई पड़ते हो। तुम एक हो, लेकिन दर्पण किस ढंग से
बना है, उस ढंग से तुम्हारी तसवीर बदल जाती है। और इतने
दर्पण हैं कि अनेकता पैदा हो गई!
रज्जब तो कहते, हैं--दुई! दुई पर ही
कहां बात टिकी? बात बहुत हो गई। दो से चार होते हैं,
चार से सोलह होते हैं। बात बढ़ती ही चली जाती है। दुई हुई,
कि चूके। फिर फिसलन पर हो। फिर फिसलते ही जाओगे, जब तक फिर पुनः एक न हो जाओ। एक हो जाओ--तो ज्यूं था त्यूं ठहराया।
ज्यूं था त्यूं ठहराया
ओशो
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