प्रभु का तो पता नहीं है। लेकिन सच ही प्रभु
का पता नहीं है? क्योंकि जब भी हम प्रभु से कोई प्रतिमा--कोई राम, कोई कृष्ण, कोई बुद्ध का खयाल ले लेते हैं,
तभी कठिनाई हो जाती है। मेरे लिए प्रभु का अर्थ समग्र अस्तित्व
है, टोटल एक्झिस्टेंस है।
ये हवाएं बहती हैं, इनका पता नहीं है?
यह आकाश है, इसका पता नहीं है? यह जमीन है, इसका पता नहीं है? आप हैं, इसका पता नहीं है? होने का पता नहीं है? यह जो होने की समग्रता
है, यह जो बड़ा सागर है अस्तित्व का, इस पूरे सागर का नाम परमात्मा है।
तो जब आप परमात्मा का नाम ले रहे हैं, तो किसी परमात्मा का नाम
नहीं ले रहे हैं--हिंदुओं के या मुसलमानों के या ईसाइयों के। आप इस समग्र अस्तित्व
को साक्षी रख कर संकल्प कर रहे हैं।
उन मित्र ने यह भी पूछा है कि बिना साक्षी
रखे भी संकल्प हो सकता है!
करें। अगर हो सकता होता तो हो गया होता।
जरूर करें, हो
सके तो बहुत अच्छा। लेकिन न हो सके तो फिर? न हो सके तो
साक्षी रख कर भी करके देख लें। हो जाए तो बहुत अच्छा।
लेकिन आप एक लहर से ज्यादा नहीं हैं। लहर क्या
संकल्प करेगी? कर भी न पाएगी और मिट जाएगी। जब लहर बन रही है, तब मिट ही रही है। जब हम उसे उठता देख रहे हैं, तब उसने गिरना शुरू कर दिया है। लहर क्या संकल्प करेगी? लहर का संकल्प अहंकार से ज्यादा नहीं हो सकता है। और अहंकार एक बड़ी झूठ
है। लेकिन सागर के साथ लहर अपने को एक समझे तो संकल्प हो सकता है। लहर नहीं रहेगी,
तब भी संकल्प रहेगा। लहर नहीं थी, तब भी
संकल्प था। और लहर जब सागर को सामने रख कर संकल्प करती है, तो सागर की पूरी शक्ति उसे उपलब्ध हो जाती है। और जब लहर अपने को समझ
लेती है कि मैं ही काफी हूं और सागर से क्या लेना-देना! तब लहर अपने हाथ से
निर्वीर्य, नपुंसक हो जाती है, सब
खो देती है।
करके देखें। व्यक्ति की हैसियत से आपके
संकल्प की बहुत कीमत नहीं हो सकती। क्योंकि व्यक्ति की हैसियत से आप ही कहां हैं!
बनती और मिटती लहर से ज्यादा नहीं हैं। इसलिए सागर को स्मरण करना उचित है। और सागर
चारों तरफ है। अगर मैं कहता कि कोई प्रतिमा वाला परमात्मा, तो सवाल था यह। हवाओं
में, ये तारों में, चांदत्तारों
में, आस-पास बैठे लोगों में, आप
में, सबके भीतर जो विस्तार है अस्तित्व का, उसका नाम ही परमात्मा है।
अंधेरे में छलांग है। लेकिन जिसे हम जिंदगी
कहते हैं, जिसे
हम जानी-मानी जिंदगी कहते हैं, वह भी अंधेरे से क्या कुछ
कम है? अज्ञात, अननोन में उतरना
है। अगर परमात्मा ज्ञात ही हो, तो फिर जानने को और क्या
शेष रह जाता है? नहीं है ज्ञात। टटोलते हैं, खोजते हैं, पुकारते हैं।
एक बात पक्की ज्ञात है, सरोवर का तो कोई पता
नहीं है, लेकिन प्यास का पता है। प्यास है मरुस्थल,
तो भी प्यास है। और प्यास कहती है कि बुझने का भी कोई उपाय होगा।
परमात्मा का पता नहीं है, लेकिन परमात्मा की खोज की प्यास
है, सत्य की खोज की प्यास है। परमात्मा शब्द से कोई प्रयोजन
नहीं; सत्य कहें, जीवन कहें,
अस्तित्व कहें, जो भी नाम आपको पसंद हो,
दे लें। नाम आपकी मर्जी। नाम से कुछ फर्क न पड़ेगा। लेकिन क्या है
जीवन, उसकी खोज की प्यास है। उस प्यास का पता है, तो काफी है। बस उसी प्यास से संकल्प को उठने दें और समग्र के प्रति
समर्पित हो जाने दें। जैसे ही कोई व्यक्ति समग्र को साथ लेकर संकल्प करता है,
उसके संकल्प की शक्ति अनंत गुना हो जाती है। क्योंकि वह अनंत को
साक्षी बनाता है। अनंत को स्मरण करता है। अनंत के साथ अपने को जुड़ा हुआ अनुभव करता
है।
ध्यान दर्शन
ओशो
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