मेरे पिता मुझे पत्र लिखते थे। नियम से पत्र
लिखते थे। उनके पत्र में यह बात हमेशा होती थी--"लिखा थोड़ा, समझना ज्यादा।'
मैंने उनसे कहा, "इसको थोड़ा और आगे
बढ़ाओ--लिखा कुछ भी नहीं, समझ लेना सब।' ऐसे भी कुछ लिखते नहीं थे। लिखने को कुछ होता भी नहीं था। तो खाली
कार्ड ही भेज दिए--लिखा कुछ भी नहीं, समझना सब। इसको भी
लिखने की जरूरत नहीं, खाली कार्ड आएगा तो मैं समझ ही
लूंगा कि लिखा कुछ भी नहीं, समझना ही समझना है।
कहते हैं एकनाथ ने पत्र लिखा निवृत्तिनाथ
को। खाली कागज भेज दिया। लिखो भी क्या! एकनाथ भी जागे हुए हैं, निवृत्तिनाथ भी जागे हुए
हैं; लिखना क्या है, कहना क्या
है! दोनों देख रहे, दोनों पहचान रहे, दोनों जी रहे। खाली कागज आया। पत्रवाहक लेकर आया, कासिद आया। निवृत्तिनाथ ने पहले पत्र पढ़ा। नीचे से ऊपर तक पढ़ा। फिर पास
में ही उनकी बहन मुक्ताबाई बैठी थी, उसे दिया कि अब तू
पढ़। फिर मुक्ताबाई ने भी पढ़ा। वह भी जाग्रत महिलाओं में से एक थी। मुक्ताबाई ने पढ़
कर कहा, "खूब लिखा है! जी भर कर लिखा है! और एकनाथ
ऐसे ही कोरे हैं जैसा यह कागज। सब लिखावट खो गयी है, शून्य
बचा है।'
और जहां शून्य बचता है वहीं शास्त्र का जन्म
होता है। शून्य से ही उठते हैं शास्त्र।
दो बुद्धपुरुष मिलें तो शून्य का ही
आदान-प्रदान होता है। सुनोगे तुम कुछ भी नहीं। बात कह दी जाएगी, कही बिलकुल न जाएगी।
शब्द आड़े न आएंगे, हृदय से हृदय जुड़ जाएगा। दोनों डोलेंगे
मस्ती में। नाच सकते हैं हाथ में हाथ ले कर। मदमस्त हो सकते हैं। मगर बोलने को
क्या है?
बुद्ध और महावीर एक ही धर्मशाला में ठहरे, मगर मिले भी नहीं। क्या
था कहने को, क्या था मिलने को! सोचता हूं मैं तो ख्याल
आता है, निवृत्तिनाथ ने भी नाहक कासिद को तकलीफ दी। काहे
को भेजा कोरा कागज, इसकी भी कोई जरूरत न थी।
बुद्ध और महावीर मिले ही नहीं एक ही
धर्मशाला में ठहरे। आधे हिस्से में बुद्ध का डेरा, आधे में महावीर का डेरा। एक ही गांव,
एक ही धर्मशाला। मिले नहीं। क्या जरूरत! कहने को कुछ है नहीं।
मिलने की कुछ बात नहीं। मगर दो बुद्धू मिल जाएं तो बकवास बहुत। सुनता कोई नहीं।
एक-दूसरे से कहे ही चले जाते हैं। फुरसत किसे सुनने की! सिर में इतना कचरा भरा है,
उसे उलीचने में लगे हैं। अवसर चूकते नहीं। मिल गया कोई तो इसकी
खोपड़ी में उलीच दो। अपना बोझ हलका करो।
लोग कहते हैं न--आ गये, तुमसे बात कर ली,
बोझ बड़ा हल्का हो गया, सो तो बड़ी कृपा
हुई कि बोझ हलका हो गया, मगर इस बेचारे पर क्या बीती?
इसका बोझ बढ़ा दिया। एक महिला एक डाक्टर के पास गयी। घंटे भर तक
डाक्टर की खोपड़ी खायी, न मालूम कहां-कहां की बीमारियां,
बचपन से लेकर अब तक का सारा इतिहास कहा। फिर जाते वक्त बोली कि
आप भी अदभुत चिकित्सक हैं, सिर में मेरे बहुत दर्द
था जब आयी थी, अब बिलकुल चला गया है।
डाक्टर ने कहा, "निश्चित चला गया
होगा, क्योंकि मेरी खोपड़ी भनभना रही है। तेरा तो गया,
मुझे मिल गया। गया कहीं नहीं है। घंटे भर तूने सिर खाया तो मेरा
सिर दुख रहा है अब। तू तो हल्की हो गयी। बिना दवा के चिकित्सा हो गयी।'
न तो दो मूढ़ों के बीच बात होती है, न दो जाग्रत पुरुषों के
बीच बात होती है। जाग्रत पुरुष बोलते नहीं, मूढ़ पुरुष
सुनते नहीं।
फिर तीसरा एक संयोग है कि जाग्रत और सोए के
बीच। बस वहीं बात हो सकती है। जाग्रत कहता है कि सुनो। सोया हुआ सुने, न सुन, मगर जाग्रत को कहना ही होगा। उसकी करुणा।
ज्यूँ मछली बिन नीर
ओशो
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