कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों
में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था;
हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी।
थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे,
तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर
जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है।
और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर
जाने से...उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने
जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने
के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है,
जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।
सम्राट भी कुछ नहीं कह सकता था, बात सत्य थी, आंकड़े सही थे। तब उसने गांव में बसे
एक फकीर से जाकर प्रार्थना की कि क्या आप मेरी फौजों के सेनापति बन कर जा सकते हैं?
यह उसके सेनापतियों को समझ में ही नहीं आई
बात। सेनापति जब इनकार करते हों,
तो एक फकीर को--जिसे युद्ध का कोई अनुभव नहीं, जो कभी युद्ध पर गया नहीं, जिसने कभी कोई
युद्ध किया नहीं, जिसने कभी युद्ध की कोई बात नहीं की--यह
बिलकुल अव्यावहारिक आदमी को आगे करने का क्या प्रयोजन है?
लेकिन वह फकीर राजी हो गया। जहां बहुत से
व्यावहारिक लोग राजी नहीं होते वहां अव्यावहारिक लोग राजी हो जाते हैं। जहां
समझदार पीछे हट जाते हैं, वहां जिन्हें कोई अनुभव नहीं है, वे आगे खड़े
हो जाते हैं। वह फकीर राजी हो गया। सम्राट भी डरा मन में, लेकिन फिर भी ठीक था। हारना भी था तो मर कर हारना ही ठीक था।
फकीर के साथ सैनिकों को जाने में बड़ी घबड़ाहट
हुई: यह आदमी कुछ जानता नहीं! लेकिन फकीर इतने जोश से भरा था, सैनिकों को जाना पड़ा।
सेनापति भी सैनिकों के पीछे हो लिए कि देखें, होता क्या
है?
जहां दुश्मन के पड़ाव पड़े थे उससे थोड़ी ही
दूर उस फकीर ने एक छोटे से मंदिर में सारे सैनिकों को रोका, और उसने कहा कि इसके
पहले कि हम चलें, कम से कम भगवान को कह दें कि हम लड़ने
जाते हैं और उनसे पूछ भी लें कि तुम्हारी मर्जी क्या है? अगर
हराना ही हो तो हम वापस लौट जाएं और अगर जिताना हो तो ठीक।
सैनिक बड़ी आशा से मंदिर के बाहर खड़े हो गए।
उस आदमी ने हाथ जोड़ कर आंख बंद करके भगवान से प्रार्थना की, फिर खीसे से एक रुपया
निकाला और भगवान से कहा कि मैं इस रुपए को फेंकता हूं, अगर
यह सीधा गिरा तो हम समझ लेंगे कि जीत हमारी होनी है और हम बढ़ जाएंगे आगे, और अगर यह उलटा गिरा तो हम मान लेंगे कि हम हार गए, हम वापस लौट जाएंगे, राजा से कह देंगे,
व्यर्थ मरने की व्यवस्था मत करो; हमारी
हार निश्चित है, भगवान की भी मर्जी यही है।
सैनिकों ने गौर से देखा, उसने रुपया फेंका। चमकती
धूप में रुपया चमका और नीचे गिरा। वह सिर के बल गिरा था; वह
सीधा गिरा था। उसने सैनिकों से कहा, अब फिकर छोड़ दो। अब
खयाल ही छोड़ दो कि तुम हार सकते हो। अब इस जमीन पर कोई तुम्हें हरा नहीं सकता।
रुपया सीधा गिरा था। भगवान साथ थे। वे सैनिक जाकर जूझ गए। सात दिन में उन्होंने
दुश्मन को परास्त कर दिया। वे जीते हुए वापस लौटे। उस मंदिर के पास उस फकीर ने कहा,
अब लौट कर हम धन्यवाद तो दे दें!
वे सारे सैनिक रुके, उन सबने हाथ जोड़ कर
भगवान से प्रार्थना की और कहा, तेरा बहुत धन्यवाद कि तू
अगर हमें इशारा न करता जीतने का, तो हम तो हार ही चुके
थे। तेरी कृपा और तेरे इशारे से हम जीते हैं।
उस फकीर ने कहा, इसके पहले कि भगवान को
धन्यवाद दो, मेरे खीसे में जो सिक्का पड़ा है, उसे गौर से देख लो। उसने सिक्का निकाल कर बताया, वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था, उसमें कोई उलटा
हिस्सा था ही नहीं। वह सिक्का बनावटी था, वह दोनों तरफ
सीधा था, वह उलटा गिर ही नहीं सकता था!
उसने कहा, भगवान को धन्यवाद मत दो। तुम आशा से भर गए
जीत की, इसलिए जीत गए। तुम हार भी सकते थे, क्योंकि तुम निराश थे और हारने की कामना से भरे थे। तुम जानते थे कि
हारना ही है।
जीवन में सारे कामों की सफलताएं इस बात पर
निर्भर करती हैं कि हम उनकी जीत की आशा से भरे हुए हैं या हार के खयाल से डरे हुए
हैं। और बहुत आशा से भरे हुए लोग थोड़ी सी सामर्थ्य से इतना कर पाते हैं, जितना कि बहुत सामर्थ्य
के रहते हुए भी निराशा से भरे हुए लोग नहीं कर पाते हैं। सामर्थ्य मूल्यवान नहीं
है। सामर्थ्य असली संपत्ति नहीं है। असली संपत्ति तो आशा है--और यह खयाल है कि कोई
काम है जो होना चाहिए; जो होगा; और
जिसे करने में हम कुछ भी नहीं छोड़ रखेंगे।
अनंत की पुकार
ओशो
No comments:
Post a Comment