ऐसा प्रश्न स्वाभाविक है। मन को यह खयाल आता
है कि यदि महापुरुषों पर, शास्त्रों पर श्रद्धा न करेंगे तो भटक जाएंगे। मगर बड़े आश्चर्य की बात है,
हम यह नहीं सोचते कि श्रद्धा करते हुए भी हम भटकने से कहां बच सके
हैं। विश्वास करते हुए भी क्या हम भटक नहीं रहे हैं? भटक नहीं
गए हैं? विश्वास हमें कहां ले जा सका है। विश्वास कहीं ले
जा भी नहीं सकता। क्यों?
क्योंकि जो विश्वास दिखाई पड़ता है
ऊपर से, भीतर
उसके संदेह छिपा होता है। विश्वास संदेह को छिपाने के वस्त्रों से ज्यादा नहीं है।
जब आप कहते हैं, मैं विश्वास करता हूं। उसका ही मतलब हुआ कि
आपके भीतर संदेह मौजूद है, नहीं तो विश्वास कैसे करिएगा। जब
कोई आदमी कहता है, मैं ईश्वर पर विश्वास करता हूं,
उसका मतलब? उसका मतलब अगर वह थोड़ा भीतर झांक
कर देखेगा तो पाएगा कि संदेह मौजूद है। उसी संदेह को छिपाने के लिए विश्वास किया गया
है। जो आदमी जानता है वह विश्वास नहीं करता।
श्री अरविंद को किसी ने पूछा था: डू यू बिलीव
इन गॉड? क्या
आप विश्वास करते हैं ईश्वर में? तो श्री अरविंद ने कहा,
नहीं, आइ डू नॉट बिलीव, आइ नो। मैं विश्वास नहीं करता हूं, मैं जानता हूं।
ज्ञान के अतिरिक्त संदेह कभी समाप्त नहीं होता।
ज्ञान ही संदेह की मृत्यु बन सकता है। जैसे प्रकाश अंधकार की मृत्यु बनता है, वैसे ही ज्ञान संदेह की मृत्यु
बनता है। विश्वास देकर हम अपने आपको धोखा दे लेते हैं। हम सोचते हैं कि हमने विश्वास
कर लिया, बात समाप्त हो गई। विश्वास से बात समाप्त नहीं होती,
भीतर संदेह मौजूद बना ही रहता है। भीतर संदेह होता है, ऊपर विश्वास होता है। जीवन भर संदेह नष्ट नहीं होता इस भांति। जिन्हें संदेह
नष्ट करना हो, और संदेह नष्ट हो जाए तो ही जीवन में एक थिरता,
तो ही जीवन में एक वास्तविक स्थिति उत्पन्न होती है। तो ही हम सत्य
के साक्षात में समर्थ होते हैं। लेकिन संदेह जिसको मिटाना है उसे संदेह करना पड़ता है
सम्यक रूप से। उसे राइट डाउट, उसे ठीक-ठीक संदेह की विधि सीखनी
होती है। और अगर कोई मनुष्य ठीक से संदेह करना शुरू करे, तो
एक दिन उस जगह पहुंच जाता है जहां संदेह नहीं किया जा सकता है। उस दिन जो उपलब्ध होता
है वही ज्ञान जीवन को बदलता है।
अंतर की खोज
ओशो
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