अनिल भारती,
किसके जीवन में विषाद नहीं है? जब तक स्वयं का साक्षात न
हो, विषाद होगा ही। जब तक परमात्मा न मिले, विषाद होगा ही। यह स्वाभाविक है।
इसलिए विषाद के विश्लेषण में न पड़ो। उतनी शक्ति
ध्यान में लगाओ। यही भेद है मनोविज्ञान में और धर्म में। मनोविज्ञान विश्लेषण करता
है कि विषाद क्यों है? इसका कारण क्या है? और धर्म इसकी चिंता ही नहीं
करता कि विषाद क्यों है, इसका कारण क्या है? धर्म तो सीधा ध्यान का सुझाव देता है।
यूं समझो कि तुम्हारे घर में अंधेरा है। अब पहले
यह समझो कि अंधेरा क्यों है, क्या कारण है, या दीया जलाओ? मैं तो यह कहूंगा कि अगर अंधेरे को समझना भी हो तो बिना दीया जलाए कैसे
समझोगे? पहले दीया जलाओ, फिर खोजो
अंधेरे को कहां है। मिलेगा भी नहीं।
विषाद का विश्लेषण न पूछो। दीया जला लो। विषाद
अंधकार की भांति है।
जब तेरी फुरकत में घबराते हैं हम
सर को दीवारों से टकराते हैं हम
ऐ अजल आ चुक खुदा के वास्ते
जिंदगी से अब तो घबराते हैं हम
कहके आये थे न आवेंगे कभी
बे बुलाये आज फिर जाते हैं हम
किसने वादा घर में आने का किया
आपसे बाहर हुए जाते हैं हम
जब तेरी फुरकत में घबराते हैं हम
सर को दीवारों से टकराते हैं हम
अभी तो करोगे भी क्या--सर को दीवारों से ही टकराओगे!
जब तक परमात्मा न मिल जाए, तब तक जीवन एक पीड़ा ही है, एक घाव है। परमात्मा
के मिलते ही स्वास्थ्य है। और कठिन नहीं है उसका मिल जाना। मिल जाना सरल है।
जागो। मन से अपनी ऊर्जा को खींचो और ध्यान में
उस ऊर्जा को सन्निहित कर दो। ध्यान का दीया जले कि मीन फिर सागर में आ जाए। और फिर
आनंद ही आनंद है।
ज्यूँ मछली बिन नीर
ओशो
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