अभी क्या रस है जीवन में?
अभी कर्ता बने हुए हैं गीता के विपरीत, अभी
क्या रस है जीवन में? और अगर जीवन में रस ही है, तो गीता को पढ़ने की जरूरत क्या है? गीता को
सुनने की क्या जरूरत है? अगर जीवन में रस ही है, तो धर्म की बात ही क्यों उठानी? परमात्मा और
मोक्ष और ध्यान और समाधि की चर्चा ही क्यों चलानी?
अगर जीवन में रस है, तो बात खतम हो गई। रस की
ही तो खोज है। रस ही तो परमात्मा है। बात खतम हो गई। फिर कुछ करना नहीं है। फिर और
ज्यादा कर्ता हो जाएं, ताकि और ज्यादा रस मिले। और संसार
में उतर जाएं, ताकि रस के और गहरे स्रोत मिल जाएं।
अगर जीवन में रस मिल ही रहा है कर्ता बनकर, तो गीता वगैरह को,
सबको अग्नि में आहुति कर दें। कोई आवश्यकता नहीं है। और कृष्ण
वगैरह की बात ही मत सुनना। नहीं तो वे आपका रस नष्ट कर दें। आप बड़े आनंद में हैं,
कहां इनकी बातें सुनते हैं!
लेकिन आप अगर रस में ही होते, तो यह बात ठीक थी। आपको
रस बिलकुल नहीं है। दुख में हैं, गहन दुख में हैं। हा,
रस की आशा बनाए हुए हैं। जब भी हैं, तब
दुख में हैं; और रस भविष्य में है।
संसार में जरा भी रस नहीं है। सिर्फ भविष्य
की आशा में रस है। जहां हैं, वहां तो दुखी हैं। लेकिन सोचते हैं कि कल एक बड़ा मकान बनेगा और वहां
आनंद होगा। जितना है, उसमें तो दुखी हैं। लेकिन सोचते हैं,
कल ज्यादा हो जाएगा और बड़ा रस आएगा। कल कुछ होगा, जिससे रस घटित होने वाला है।
कल की आशा में आज के दुख को हम बिताते हैं।
वह कल कभी नहीं आता। कल होता ही नहीं। जो भी है, वह आज है। संसार आशा है। उस आशा में रस है।
डर लगता होगा कि अगर साक्षी हो जाएंगे, तो फिर रस खो
जाएगा। क्योंकि साक्षी होते ही भविष्य खो जाता है; वर्तमान
ही रह जाता है। इसलिए सवाल तो बिलकुल सही है।
संसार में रस नहीं है, जो खो जाएगा। क्योंकि
संसार में रस होता, तब तो धर्म की कोई जरूरत ही नहीं थी।
संसार में दुख है, इसलिए धर्म पैदा हो सका है। संसार में
बीमारी है, इसलिए धर्म की चिकित्सा खोजी जा सकी है। अगर संसार स्वास्थ्य
है, तो धर्म
तो बिलकुल निष्प्रयोजन है।
बर्ट्रेंड रसेल ने ठीक कहा है। उसने कहा है
कि दुनिया में धर्म तब तक रहेगा,
जब तक दुख है। इसलिए अगर हमको धर्म को मिटाना है, तो दुख को मिटा देना चाहिए।
वह ठीक कहता है। लेकिन दुख मिट नहीं सकता।
पांच हजार साल का इतिहास तो हमें ज्ञात है। आदमी दुख को मिटाने की कोशिश कर रहा
है। और एक दुख मिटा भी लेता है,
तो दस दुख पैदा हो जाते हैं। पुराने दुख मिट जाते हैं, तो नए दुख आ जाते हैं। लेकिन दुख नहीं मिटता।
निश्चित ही, हजार साल पहले दूसरे दुख थे, आज दूसरे दुख हैं। कल दूसरे दुख होंगे। हिंदुस्तान में एक तरह का दुख
है, अमेरिका में दूसरी तरह का दुख है, रूस में तीसरी तरह का दुख है। लेकिन दुख नहीं मिटता।
जमीन पर कोई भी समाज आज तक यह नहीं कह सका
कि हमारा दुख मिट गया, अब हम आनंद में हैं। कुछ व्यक्ति जरूर कह सके हैं कि हमारा दुख मिट गया
और हम आनंद में हैं। लेकिन वे व्यक्ति वही हैं, जिन्होंने
धर्म का प्रयोग किया है। आज तक धर्म से रहित व्यक्ति यह नहीं कह सका कि मैं आनंद
में हूं। वह दुख में ही है। रसेल ठीक कहता है, धर्म को
मिटाना हो तो दुख को मिटा देना चाहिए। मैं भी राजी हूं। लेकिन दुख अगर मिट सके,
तब।
दो संभावनाएं हैं। दुख मिट जाए, तो धर्म मिट जाए,
एक संभावना। एक दूसरी संभावना है कि धर्म आ जाए, तो दुख मिट जाए। रसेल पहली बात से राजी है। मैं दूसरी बात से राजी हूं।
दुख मिट नहीं सकता। लेकिन धर्म आ जाए तो दुख मिट सकता है। धर्म तो चिकित्सा है। वह
तो जीवन से दुख के जो—जो कारण हैं, उनको नष्ट करना है।
जिस कारण से हम दुख पैदा कर लेते हैं जीवन में, उस कारण
को तोड़ देना है। वह कारण है, कर्ता का भाव। वह कारण है कि
मैं कर रहा हूं वही दुख का मूल है। अहंकार, मैं हूं वही
दुख का मूल है। उसे तोड़ते से ही दुख विलीन हो जाता है और आनंद की वर्षा शुरू हो
जाती है।
गीता दर्शन
ओशो
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