मैंने सुना है, कि एक बार एक मरीज एक चिकित्सक के पास आया। मरीज ऐसा था,
कि वैसी बीमारी कभी करोड़ में एक आदमी को होती है। एक खास ढंग का टयूमर था
उसके पेट में। चिकित्सक ने उसका पेट काटा, टयूमर निकाला और कहते हैं,
चिकित्सक नाचने लगा। उसने कहा, “हाउ ब्यूटिफूल!”
वह जो टयूमर था, वह जो रोग की गांठ थी, उसको निकाल कर वह नाचा और उसने
कहा, “कैसा सुंदर है! क्योंकि कभी करोड़ों में एक–जैसा कोहिनूर हीरा होता
है, ऐसा वह टयूमर है। कभी करोड़ों में एक आदमी होता है वैसी बीमारी। और कभी
हजारों में एक चिकित्सक को मौका मिलता है उसका आपरेशन करने का।
तो बड़ी सुंदर चीज है। बीमार से उतना मतलब नहीं है उसे। वह जो टेबिल पर
पड़ा है, उस आदमी से मतलब नहीं है, उसे मतलब टयूमर से है। और सौभाग्यशाली है
वह, कि उसे इस टयूमर को देखने का सौभाग्य मिल गया। ऐसा कभी-कभी किसी
चिकित्सक को मिल पाता है।
अब तुम सोच ही नहीं सकते, कि टयूमर कैसे सुंदर हो सकता है! तुम्हारे पास
चिकित्सक की आंख नहीं है। टयूमर और सुंदर! बात ही बेहूदी लगती है। लेकिन
चिकित्सक दूर है। उसे बीमारी, और बीमारी को ठीक करने में ज्यादा रस है;
बीमार से कोई प्रयोजन नहीं है।
यह बड़ा भारी फर्क है। जब तुम्हारी उत्सुकता बीमार में है, तब बीमार बीच
में आ जाता है; बीमारी पीछे हो जाती है। तुम्हारे सामने बीमार है, उसके
पीछे बीमारी है। और यह बीमार से तुम्हारा अगर रस बहुत है, अगर यह तुम्हारी
प्रेयसी है और उससे तुम्हारा विवाह होनेवाला है, तो तुम्हारे सब हाथ-पैर,
रोएं-रोएं कंप जाएंगे। तुम कितने ही कुशल चिकित्सक होओ, सब कुशलता मिट्टी
हो जाएगी। अगर यह तुम्हारा ही बेटा है, और मरने के करीब है, तो बीमारी पीछे
हो जाएगी, बीमार आगे हो जाएगा।
जब कोई चिकित्सक बिना किसी संबंध के, राग के किसी की चिकित्सा करता है,
तो बीमार पीछे होता है, बीमारी सामने होती है। बीमार से कोई लेना-देना नहीं
होता। बीमारी और चिकित्सक का सीधा साक्षात्कार होता है। तभी कुछ वैज्ञानिक
घटना घट सकती है, निदान हो सकता है।
गुरु की उत्सुकता चिकित्सक की उत्सुकता है। वह बीमारी को सामने रखता है,
तुम को सामने नहीं। वह बीमारी को मिटा देने में उत्सुक है। तुम पीछे हो।
तुम्हारे व्यक्तिगत लगाव, आसक्तियों का कोई मूल्य नहीं है। गुरु ठीक से देख
पाता है, कि तुम कहां हो। गुरु ठीक से तुम्हें चला पाता है। बड़ी कठिनाइयां
इस संबंध में पैदा हुई हैं अतीत के इतिहास में।
बुद्ध ने स्वभावतः वे पुरुष थे; जिस पद्धति और जिस साधना से जीवन-दृष्टि
पाई, फिर उसी पद्धति को उन्होंने समझाना शुरू किया। हजारों लोग, लाखों लोग
दीक्षित हुए, ज्ञान को उपलब्ध होने लगे। स्त्रियां भी उत्सुक हुईं, लेकिन
बुद्ध स्त्रियों को दीक्षा नहीं देते। वे इनकार किए चले जाते। उस इनकार का
कारण है। उस इनकार का बुनियादी कारण यही है, कि बुद्ध की सारी साधना-पद्धति
पुरुष चित्त के लिए विकसित की गई है। और स्त्रियों को उस साधना-पद्धति में
डालना, साधना पद्धति को भ्रष्ट करना होगा। स्त्रियां कहीं पहुंचेगी यह तो
संदिग्ध है, लेकिन साधना-पद्धति भ्रष्ट हो जाएगी।
वे स्त्रियों को हटाते रहे। महावीर ने–उनके सामने भी वही सवाल था दूसरे
ढंग से उसे हल किया। लेकिन मामला वही का वही है। महावीर ने स्त्रियों को
नहीं हटाया। जब स्त्रियों ने मांगी दीक्षा, तो उन्होंने दी। लेकिन महावीर
की जीवन पद्धति में, उन्होंने यह व्यवस्था की, कि कोई भी स्त्री, स्त्री
रहते मुक्त नहीं हो सकेगी, मोक्ष नहीं पा सकेगी। पहले उसे पुरुष की तरह
जन्म लेना पड़ेगा। पुरुष की पर्याय लेनी पड़ेगी।
तो इस जीवन की साधना इतना ही कर सकती है, कि अगले जीवन में वह पुरुष हो
जाए और फिर वह मुक्त हो सकेगी। इसमें कोई स्त्रियों की निंदा नहीं है।
इसमें कुल मामला इतना है कि महावीर की पद्धति तो बुद्ध से भी ज्यादा पुरुष
की पद्धति है। बुद्ध की पद्धति में तो थोड़ी बहुत गुंजाइश भी हो सकती है
स्त्री के लिए, महावीर की पद्धति में तो कोई गुंजाइश नहीं है। वह तो शुद्ध
पुरुष की है, वह तो विशुद्ध ध्यान की है। और उस ध्यान के कारण उस पद्धति से
जो चलेगा, उसमें स्त्री को पुरुष हो कर ही मोक्ष मिल सकता है।
मुझसे लोग कभी पूछते हैं, कि क्या यह स्त्रियों का विरोध है? कुछ विरोध
नहीं है। यह सिर्फ पद्धति है। इसका यह मतलब नहीं, कि कोई स्त्री रह कर
मोक्ष को नहीं पा सकता; लेकिन महावीर की पद्धति से न पा सकेगा।
फिर उसको मीरा की राह पकड़नी पड़े, चैतन्य की राह पकड़नी पड़े, कृष्ण का
मार्ग पकड़ना पड़े; लेकिन महावीर के मार्ग से न पाया जा सकेगा। महावीर के
मार्ग से तो यही होगा, कि स्त्री पुरुष की तरह पैदा होगी और फिर मुक्त
होगी।
तो जैन इतिहास में एक घटना है, जो बड़ी मधुर है। ऐसा कहते हैं, कि एक
स्त्री तीर्थंकर हो गई। यह होना तो नहीं चाहिए था। अघट घटा। वह स्त्री
पुरुष जैसे ही रही होगी। उसमें स्त्रैण तत्त्व नहीं रहा होगा, इसलिए घट
गया।
मल्लीबाई नाम की एक स्त्री सीधे ही मोक्ष को उपलब्ध हो गई। जैनियों ने
उसका नाम ही बदल डाला। वे उसको मल्लीनाथ कहते हैं, मल्लीबाई ही नहीं कहते।
क्योंकि उन्होंने कहा, कि यह बात ही फिजूल है यह कहना, कि यह स्त्री है।
क्योंकि इसने तो सिद्ध ही कर दिया; इस की मुक्त दशा ने सिद्ध कर दिया कि यह
पुरुष है। इसके शरीर की हम फिक्र नहीं करते। इसलिए उन्होंने उसको मल्लीबाई
कहा ही नहीं। उसका नाम ही मल्लीनाथ कर दिया। वह भी चौबीस तीर्थंकरों में
पुरुष की ही तरह स्वीकृत हो गई, स्त्री की तरह स्वीकृत नहीं रही। वह अपवाद
था, लेकिन यह हो सकता है। अब पश्चिम में विज्ञान जानता है कि कभी-कभी किसी
स्त्री का शरीर पुरुष के शरीर में रूपांतरित हो जाता है; हार्मोन बदल जाते
हैं। कभी-कभी हार्मोन की मात्रा बिलकुल करीब होती है।
जैसे समझो, कि इक्यावन प्रतिशत हार्मोन पुरुष के हैं और उनचास प्रतिशत
हार्मोन स्त्री के हैं, तो इस व्यक्ति में स्त्री और पुरुष के बीच बस,
जरा-सा ही फासला है। किसी बीमारी में हार्मोन बदल जाएं, या इंजेक्शन और
दवाओं से हार्मोन बदल जाएं और स्त्रीत्तत्त्व की मात्रा बढ़ जाए तो यह पुरुष
स्त्री हो जाए, या स्त्री पुरुष हो जाए। बहुत से रूपांतरण हुए हैं।
मुझे लगता है मल्लीबाई इसी तरह की घटना रही होगी। उसके भीतर करीब-करीब
पचास-पचास प्रतिशत पुरुष-स्त्री तत्त्व समतुल रहे होंगे। और वह पुरुष के
मार्ग से मोक्ष को उपलब्ध हो गई। ठीक ही किया जैनों ने, कि उसका नाम बदल
दिया। क्योंकि उससे व्यर्थ अपवाद के कारण अड़चन आती।
जैन विचार-पद्धति में स्त्री का सीधा मोक्ष नहीं हो सकता, यह मैं भी
कहता हूं। मैं यह नहीं कहता कि स्त्री का सीधा मोक्ष हो ही नहीं सकता; जैन
पद्धति में नहीं हो सकता। वह सारी की सारी पद्धति ध्यान की है। प्रार्थना
की उसमें कोई जगह नहीं है। प्रार्थना का वहां कोई अर्थ नहीं है।
महावीर कहते हैं, किससे प्रार्थना करते हो? किसकी प्रार्थना करते हो?
प्रार्थना से कुछ न होगा, ध्यान में उतरो। चुप होओ, मौन बनो, भीतर जाओ। ये
हाथ किसके लिए जोड़े हुए हैं? वहां कोई भी नहीं है, जिसके लिए तुम हाथ जोड़
रहे हो।
अत्यंत एकांत! अत्यंत शांत! इसलिए महावीर ने अपनी परम-ज्ञान की अवस्था
को कैवल्य कहा है, जहां केवल तुम रह गए; जहां बस तुम्हारी चेतना बची। वह
समाधि की आखिरी अवस्था है।
लेकिन मीरा है, चैतन्य है, वे भी पहुंच जाते हैं। वे नाचते हुए पहुंचते
हैं, गीत गाते हुए पहुंचते हैं, परमात्मा के रंग में डूबे हुए पहुंचते हैं।
इनका पहुंचने का ढंग दूसरा है। ये प्रेम से पहुंचते हैं, ध्यान से नहीं।
ये इतनी प्रार्थना करते हैं–इसे थोड़ा समझना; बारीक है। ये इतनी
प्रार्थना करते हैं, इतनी प्रार्थना करते हैं कि प्रार्थना करने वाला मिट
जाता है। बस, प्रार्थना सुनने वाला ही रह जाता है। ध्यानी में परमात्मा मिट
जाता है, आत्मा रह जाती है। प्रेमी में आत्मा मिट जाती है, परमात्मा रह
जाता है। दोनों में एक बचता है। “एक” उपलब्धि है। अद्वैत बचता है।
लेकिन ध्यानी “तू” को काट देता है। प्रेमी “मैं” को काट देता है। ध्यानी
की सारी चेष्टा है, कि “मैं” अलग, पृथक, भिन्न कैसे हो जाउं। इसलिए महावीर
के शास्त्र का एक नाम है भेद-विज्ञान कि कैसे तुम भिन्न हो जाओ। वही तो
सारा धर्म है : अलग हो जाओ सब से। बस, तुम ही बचो; वहां कोई भी न बचे।
तुम्हारे उस परम एकांत में ही खिलेगा फूल चैतन्य का। तुम मुक्त हो जाओगे।
भक्त कहते हैं, ऐसी घड़ी, जहां हम न बचे, तू ही बचे। जहां हम बिलकुल पुछ
जाएं। हमारा कोई होना न हो, खोज खबर न मिले। हमारा कोई पता ही न चले। हम
ऐसे हो जाएं, जैसे कभी थे ही न शून्यवत! बस, तू ही हो।
जहां मैं कट जाता है पूरा, और परमात्मा ही शेष रह जाता है, वहां भी
मोक्ष हो जाता है। मोक्ष होता है एक के बचने से। न तो मैं का सवाल है, न तू
का सवाल है। ये तो दो ढंग हैं। मोक्ष मिलता है अद्वैत के बचने से। कौन
बचता है, उसको तुम मैं का नाम देते हो या तू का, यह तो सिर्फ भाषा की बात
है। तुम उसे आत्मा कहते हो या परमात्मा, यह तो सिर्फ भाषा की बात है। तुम
उसे बाहर देखते हो कि भीतर, यह तो सिर्फ देखने की बात है। क्योंकि भीतर भी
वही है, बाहर भी वही है।
प्रार्थना है भावदशा, ध्यान है चित्तदशा। समाधि में दोनों एक हो जाते हैं।
कहे कबीर दीवाना
ओशो
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