ध्यान स्नान है अंतस का।
वह जो रोज-रोज इकट्ठा हो जाता है, उसे आप एकांत में, ध्यान में विसर्जित
करते हैं। लोग मुझसे आकर पूछते हैं, आज ही एक मित्र ने आकर पूछा, क्या
केथारसिस बिलकुल जरूरी है? क्या यह रेचन इतना आवश्यक है कि हम चिल्लाएं,
रोएं, क्रोधित हों?
क्या इसके बिना ध्यान न हो सकेगा?
नहीं हो सकेगा। हो सकता होता, तो हो ही गया होता। वह नहीं हो सका है अब
तक, उसका कारण यही पर्तें हैं। और एकांत में झड़ाने में हमें कठिनाई मालूम
पड़ती है; क्योंकि इररेशनल, अतक्र्य मालूम होती है बात। अगर किसी ने गाली
दी, तो क्रोध करने में योग्य मालूम पड़ता है कि गाली दी, इसलिए क्रोध कर रहे
हैं। और यहां मैं ध्यान में आपसे कहता हूं कि क्रोध को निकल जाने दें, तो
आपको बड़ी मुश्किल मालूम पड़ती है। किस पर निकल जाने दें? कोई उपद्रव कर भी
नहीं रहा है–कहां निकल जाने दें?
आपको यह कला सीखनी पड़ेगी। किसी पर क्रोध फेंकने की जरूरत नहीं है। यह
खाली आकाश बड़े प्रेम से आपके क्रोध को स्वीकार कर लेता है। और मजा यह है कि
अगर किसी आदमी पर आपने क्रोध निकाला, तो वहां से भी क्रोध निकलेगा, वहां
भी ज्वालामुखी है, वह भी आपके जैसा आदमी है। वह भी तलाश में है, आप ही थोड़ी
तलाश में हैं। यह मुलाकात, दोनों के लिए संगत है।
इसलिए बुद्ध ने कहा है कि क्रोध से क्या होगा? और क्रोध आएगा, फिर और
क्रोध करना पड़ेगा। उसकी शृंखला का तो कोई अंत नहीं है। हमें तो दिखाई नहीं
पड़ता, हमें वह शृंखला दिखाई नहीं पड़ती; नहीं तो हम जन्मों-जन्मों तक एक
दूसरे से बंधे हुए क्रोध क्यों करते रहते? जिससे आप पिछले जन्म में लड़े
हैं, उससे आप आज भी लड़ रहे हैं। चलता रहता है संघर्ष; लंबी यात्रा बन जाती
है, शृंखला बन जाती है, कड़ियां बन जाती हैं।
तो दूसरे पर क्रोध करने से कुछ हल नहीं होगा। लेकिन खुले आकाश में क्रोध
को विसर्जित कर दें, दूसरों का ध्यान ही न रखें। अपना ही ध्यान रखें कि
मेरे भीतर क्रोध है, मैं इसे बाहर कर दूं। वह शून्य है, और शून्य की छाती
बड़ी है। शून्य आपके क्रोध को वापस नहीं करता; आपके क्रोध को आत्मसात कर
जाता है, पी जाता है। इसलिए हमने शंकर के गले में नीला रंग डाला है, वह जहर
पीने का प्रतीक है। वह परमात्मा हमारा सारा जहर पी लेता है। वह नीलकंठ है।
वह चारों तरफ मौजूद है। हम उसे सब जहर दे दें, बेफिक्र। वह जहर उसे नुकसान
भी नहीं करेगा। सिर्फ उसका कंठ नीला हो जाएगा, और सुंदर लगेगा।
ध्यान में रेचन अनिवार्य है; क्योंकि वह स्नान है भीतर का। क्रोध भी
शून्य में डाल दें; दुख भी, पीड़ा भी, संताप भी, चिंता भी। और इसको सिर्फ मन
से ही न करें, इसको पूरे शरीर से प्रगट हो जाने दें। क्योंकि हमारा शरीर
भी ग्रसित हो गया है। आपको पता नहीं क्योंकि हम शरीर के इतने अनविज्ञ हो गए
हैं; आत्मा तो बहुत दूर है, हमें शरीर की भी कोई विज्ञता नहीं है। हमें यह
भी पता नहीं कि हमारे शरीर में क्या हो रहा है, हम क्या कर रहे हैं।
समाधी के सप्त द्वार
ओशो
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