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Thursday, January 28, 2016

सत्य वहां है जहां तुम्हारी शर्त छूट जाती है

एक आदमी धन कमाना शुरू करता है। वह धन कमाता है इसलिए कि आराम से जीयेगे। फिर वर्षों लग जाते हैं धन कमाने में। और धन कमाने में सब आराम खोना पड़ता है, नहीं तो कमायेगा कैसे? सोचा था कि धन कमाएंगे, आराम से जीएंगे। लक्ष्य था आराम से जीएंगे और आराम से जीना हो तो बिना धन के तो जी नहीं सकते। तो धन कमाने में लगा था और धन कमाना हो तो आराम तो नहीं किया जा सकता। आराम छोड़ना पड़ेगा, तब धन कमाया जा सकता है। तो वर्षों तक वह आदमी, समझ लो बीस पच्चीस वर्ष तक सब आराम छोड्कर धन कमा लेता है। अब वह धन तो कमा लेता है, लेकिन आराम करने की आदत छूट गई है। न आराम करने की आदत पकड़ गई।


अब बड़ी मुश्किल हो गई। पच्चीस साल का अभ्यास हो गया। अब उसको आप कहो कि घर बैठो, तो वह कहता है, घर कैसे बैठें! उसके चपरासी पहुंचते हैं दफ्तर में नौ बजे, वह आठ बजे पहुंच जाता है। उसके क्लर्क भाग जाते हैं पांच बजे, वह सात बजे लौटता है। अब वह यह भूल ही गया है कि जो सीडी एक दिन चढने के लिए पकड़ी थी, वह उतरने के लिए ही पकड़ी थी। किसी तल पर जाकर आराम करने उतर जाना था। किसी जगह जाकर जहां धन हो जाए, वहां फिर चुपचाप खिसक जाना था, क्योंकि वह चाहता यही था कि धन से आराम कर सकें।


अब बड़ी मुश्किल हो गई। धन कमाने में आराम खोया, आराम खोने में न  आराम की आदत बन गई। अब न आराम की आदत पकड़ गई। अब वह सोचता है कि आराम कर कैसे सकता हूं। अब वह धन कमाए जाता है। अब वह सीडी पर ही चढ़े जाता है। अब इह सीढ़ी से उतरता ही नहीं। अब उसकी छत कभी आती ही नहीं। अब वह चढ़ता ही जाता है। सीढ़ी पर सीडी बनाए चला जाता है, बनाए चला जाता है। उसे अब तुम कितना ही कहो, बस अब बहुत सीडी बन चुकी, अब उतर आओ। वह कहता है, यह कैसे हो सकता है! अगर आराम करना है, तो सीडी बनानी ही पड़ेगी। अब वह बनाता जाता है।


लेकिन यह धन के साथ ही होता होता तो बहुत दिक्कत न थी। यह धर्म के साथ भी यही होता है। हमारा मन वही है। हमारा मन वही का वही है।


अब एक आदमी धर्म की दुनिया में उतरता है, त्याग करना शुरू करता है। तो वह इसीलिए त्याग करना शुरू करता है कि एक ऐसी जगह आ जाए कि मन पर कोई पकड़ न रह जाए। क्योंकि जहां तक पकड़ है, वहां तक बंधन होगा। तो वह कहता है, सब छोड़ दो। जिस जिस का बंधन हो, उसको छोड़ दो। तो वह छोड़ना शुरू करता है। यह हुई सीढ़ी। अब वह छोड़ता जाता है। वह मकान छोड़ता है, दुकान छोड़ता है, परिवार छोड़ता है, धन छोड़ता है, कपड़े छोड़ता है, वह छोड़ता चला जाता है।


अब बीस पच्चीस साल में उसकी छोड़ने की आदत इतनी मजबूत हो जाती है कि अब वह इस छोड़ने की आदत को नहीं छोड़ पाता। अब यह जड़ पत्थर की तरह उसकी छाती पर बैठ जाती है। अब वह कोई न कोई तरकीब निकालता रहता है कि और क्या छोड़े। अब वह सीडी उसकी चल पड़ी। अब वह कहता है कि खाना छोड़ दें, पानी छोड़ दें, कि नमक छोड़े, कि घी छोड़े, कि शक्कर छोड़े। अब वह इसमें तरकीबें निकालता जाता है। अब वह कहता है कि नींद छोड़े, कि स्नान छोड़े। अब वह छोड़ने की ही तरकीबें निकालता चला जाता है। आखिरी दम वह वहां तक भी पहुंच जाता है कि शरीर छोड़े। हत्या करें, आत्महत्या करें, कि क्या करें। वह सब करता चला जाता है, संथारा कर लें।


ये दोनों एक ही तरह के आदमी हैं। एक ने छोड़ने की तरफ सीढ़ियां पकड़ ली हैं, एक ने पकड़ने की तरफ सीढ़ियां पकड़ ली हैं। लेकिन सीढ़ियों से कोई भी उतरने को राजी नहीं है। और मेरी दृष्टि में सत्य वहा है, जहां सीढ़ियां समाप्त हो जाती हैं और तुम समतल पर आ जाते हो; न जहां चढ़ना है, न जहां उतरना है। सत्य वहां है, जहां तुम्हारी पकड़ छूट जाती है, जहां तुम्हारी शर्त छूट जाती है।


 सत्य वहां है, जहां तुम अभ्यासित चित्त से चीजों को नहीं देखते, अभ्यासशून्य चित्त से चीजों को देखने लग जाते हो।


मैं मृत्यु सिखाता हूँ 

ओशो 


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