हम सबके मन में शत्रुता है, हम लड़ रहे हैं। हम अस्तित्व को जीतने की
कोशिश कर रहे हैं, जैसे कोई दुश्मनी है, स्पर्धा है, प्रतियोगिता है। उसके
कारण ही हम दुःखी हैं। इससे कोई अस्तित्व का नुकसान नहीं होता। हम ही कट
जाते हैं। अलग टूट जाते हैं, अजनबी हो जाते हैं। अस्तित्ववादी बहुत बार
कहते हैं कि आदमी अजनबी हो गया है, सटरेंजर हो गया है। कोई किया नहीं है
उसे, अपने आप हो गया है। और यह अस्तित्व आपका घर भी बन सकता है। आप ही खुल
जाएं तो यह अस्तित्व भी खुल जाता है।
एक सूत्र स्मरण रखें कि जैसे आप हैं, वैसा ही यह अस्तित्व आपको प्रतीत
होता है। यह सब दर्पण है चारों तरफ। आप अपनी ही शक्ल देख लेते हैं।
सुना है मैंने एक सम्राट के महल में एक कुत्ता घुस गया। और महल कांचों
का बना था। और सम्राट ने सारे दर्पण लगा रखे थे दीवारों पर। कोई हजार-हजार
दर्पण लगे थे। कुत्ता बहुत मुश्किल में पड़ गया। देखा उसने, हजारों कुत्ते
चारों तरफ खड़े थे। डरकर भौंका।
जो डरते हैं, वही भौंकते हैं। उससे खुद को आश्वासन मिलता है कि हम डरे
हुए नहीं, बल्कि हम डरा रहे हैं। डराने की चेष्टा डर का ही उपाय है। दूसरे
को डराने वही जाता है, जो डरा ही हुआ है।
भौंका लेकिन अकेला नहीं भौंका, सब दर्पण के कुत्ते भी भौंके। और घबरा
गया। हजारों कुत्ते–चारों ओर दुश्मन ही दुश्मनों से घिर गया। भागा दर्पणों
की तरफ हमला करने को। क्योंकि सुरक्षा का एक ही उपाय जानता है आदमी भी और
कुत्ता भी।
एक ही उपाय है सुरक्षा का। मैक्यावेली ने कहा है, सुरक्षा चाहिए तो
आक्रमण उपाय है। उस कुत्ते ने भी मैक्यावेली की किताब, “दि प्रिंस’ कहीं पढ़
ली होगी। उसने हमला किया। लेकिन जब आप हमला करेंगे, तो दुनिया बैठी रहेगी?
सारे दर्पणों के कुत्तों ने भी हमला किया। फिर उस रात वह कुत्ता पागल हो
गया। हो ही जाएगा। सुबह वह मरा हुआ पाया गया। और दर्पण में वहां कोई भी न
था, अपनी ही प्रतिध्वनि थी।
इस अस्तित्व के साथ हम जो भाव बना लेते हैं उसकी प्रतिध्वनियां गूंजने
लगती हैं। देखें शत्रुता से, और चारों तरफ शत्रु खड़े हो जाते हैं। और देखें
मित्रता से वहां कोई शत्रु नहीं है। आप ही फैल कर गूंज जाते हैं। आप ही
अपने को सुनाई पड़ते हैं। आपकी ही अनुगूंज, आप जी रहे हैं। यह सूत्र कहता
है, मित्रता इस अस्तित्व के साथ।
समाधी के सप्त द्वार
ओशो
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