शिष्य का अर्थ है जो सीखने को तैयार है। सीखने को तैयार कौन है?
सीखने को वही तैयार है जिसने यह अनुभव कर लिया कि अब तक अपने तईं बहुत
उपाय किए, कुछ भी सीख न पाया। सीखने को वही तैयार है जिसने अपने अज्ञान की
पीड़ा की प्रतीति कर ली। सीखने को वही तैयार है जिसने देख लिया अपने हृदय के
गहन अंधकार को। सीखने को वही तैयार है जिसने देख लिया कि मैं अपने जीवन को
सिर्फ उलझा रहा हूं, सुलझा नहीं रहा। और जितना सुलझाने की कोशिश करता हूं,
बात और उलझती चली जाती है। ऐसे पीड़ा के क्षण में, ऐसी संताप की अवस्था
में, अपनी परिस्थिति को पूरा-पूरा देख कर, अपनी यात्रा की व्यर्थता को समझ
कर शिष्यत्व का जन्म होता है। तब कोई सीखने को तैयार होता है।
और जो सीखने को तैयार है उसे अपनी अस्मिता और अहंकार को छोड़ देना पड़ता
है। क्योंकि अहंकार सीखने न देगा। अहंकार बदलने न देगा। अहंकार अपने से ऊपर
किसी को रखने को कभी राजी ही नहीं है। परमात्मा को भी करोड़ों लोग इनकार
करते हैं सिर्फ इसी कारण; इसलिए नहीं कि उन्हें पक्का पता है कि परमात्मा
नहीं है। कैसे पता हो सकता है?
मेरे पास कभी-कभी नास्तिक आ जाते हैं। कहते हैं, कोई परमात्मा नहीं है।
मैं उनसे कहता हूं, तुमने खोजा? तुमने सब खोज डाला? तुमने अस्तित्व के सब
कोने-कातर देख डाले हैं? कुछ खोजने को जगह नहीं बची? अगर सब देख डाला हो और
परमात्मा को न पाया हो, तब तो बात समझ में आती है। लेकिन खोजा कितना है?
जब तक तुम पूरे अस्तित्व को रत्ती-रत्ती नाप न डालो तब तक यह कहने का हक
नहीं है कि परमात्मा नहीं है। क्योंकि जो हिस्सा शेष रह गया है, कौन जाने
वहां हो! और शेष तो बहुत बड़ा रह गया है। जो जाना है वह तो ना-कुछ है। जो
शेष है उसका तो कोई अंत नहीं।
इसलिए नास्तिक अक्सर सोचता है कि मैं तर्कयुक्त हूं, लेकिन तर्कयुक्त
होता नहीं। यहीं तो सारा तर्क व्यर्थ हो गया। बिना खोजे कहते हो नहीं है!
अंधापन है यह तो। खोज लो, फिर न पाओ तो कह देना।
लेकिन असली सवाल नास्तिक को खोजने का नहीं है। वह यह कह रहा है, कोई
परमात्मा नहीं है। इस कहने में वास्तविक क्या कह रहा है? वह यह कह रहा है
कि मेरे ऊपर किसी को मानने की मुझे सुविधा नहीं है। और परमात्मा है तो
मुझसे ऊपर कुछ है। अहंकार इनकार करता है परमात्मा का। अहंकार और परमात्मा
के बीच गहन संघर्ष है। या तो तुम अहंकार को बचा लो, और या तुम परमात्मा को
पा लो। दोनों तुम एक साथ न कर सकोगे। और वैसी करने की कोशिश की तो सिर्फ
विक्षिप्त हो जाओगे, विमुक्त नहीं।
ताओ उपनिषद
ओशो
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