मैं तुम्हें देखता हूं; तुम दुःखी हो। और तब सहसा वह दुःख मुझे
में प्रविष्ट हो जाता है। अगर कोई दुःखी आदमी तुम्हारे कमरे में प्रवेश
करता है तो तुम भी दुःखी हो जाते हो। क्या हो जाता है? क्योंकि तुम्हारी
आंखें दर्पण की भांति है। इस लिए ही दुःख तुममें प्रतिबिंबित हो जाता है।
कोई व्यक्ति दिल खोलकर हंसता है और अचानक तुम भी हंसी से भर जाते हो।
लेकिन हुआ क्या? तुम दर्पण की तरह हो; तुम चीजों को प्रतिबिंबित
करते हो। तुम कोई सुंदर चीज देखते हो; वह चीज तुममें प्रतिबिंबित हो जाती
है। तुम कोई कुरूप चीज देखते हो; वह चीज भी तुममें प्रतिबिंबित हो जाती है।
तुम जो कुछ भी देखते हो वह तुम्हारे भीतर गहरे रूप से प्रविष्ट हो जाता
है; वह तुम्हारी चेतना का हिस्सा बन जाता है।
अगर तुम रिक्तता को, शून्य को देख रहे हो तो कुछ भी
प्रतिबिंबित होने जैसा नहीं है। या है तो सिर्फ अनंत नीलाकाश है। और अगर यह
असीम नीलाकाश तुममें प्रतिबिंबित हो जाए, अगर तुम अपने अंतस में उस आकाश
को अनुभव कर सको। तो तुम शांत हो जाओगे। सौम्य हो जाओगे। आकाश शांत और
सौम्य है। और अगर तुम शून्य को अनुभव कर सको जहां नीलिमा। आकाश सब कुछ
विलीन हो जाता है। तो तुम्हारे अंतस में भी वह शून्य प्रतिबिंबित होगा।
और शून्य में मन कैसे सक्रिय रह सकता है? तनावग्रस्त कैसे हो सकते हो?
शून्य में मन कैसे सक्रिय रह सकता है? शून्य में मन ठहर जाता है। और मन
के विदा होते ही मन जो तनाव और चिंता है, संगत-असंगत विचारों से भरा
है उसके विदा होते ही तुम शांति को उपलब्ध हो जाते हो।
एक बात और। शून्य जब अंतस में प्रतिबिंबित होता है, तो
निर्वासना बन जाता है। अचाह बन जाता है। चाह ही तनाव है। चाह करते ही तुम
चिंताग्रस्त हो जाते हो। तुम्हें एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़ती है। और
अचानक कामवासना पैदा हो जाती है। तुम्हें एक सुंदर मकान दिखाई पड़ता है और
तुम उसे पाना चाहते हो। तुम्हारे पास से एक सुंदर कार निकलती है और
तुम्हें इच्छा पकड़ती है कि मैं भी इस कार में बैठकर चलू। बस वासना पैदा
हो गई। और वासना के साथ ही मन चिंतित हो उठता है। कि उसे कैसे पाया जाए,
क्या किया जाए। मन आशावान हो उठता है या निराशा; लेकिन दोनों हालातों में
वह सपने देख रहा है। कई बातें हो सकती है।
जब चाह पैदा होती है तो तुम उपद्रव में पड़ते हो। मन अनेक खंडों
में टूट जाता है और अनेक योजनाएं, सपने और प्रक्षेपण शुरू हो जाते है। बस
पागलपन शुरू हुआ। चाह पागलपन का बीज है।
लेकिन शून्य कोई विषय नहीं है। वह बस शून्य है। तुम शून्य को
देखते हो तो कोई चाह नहीं पैदा होती। हो नहीं सकती है। तुम शून्य पर
अधिकार करना नहीं चाहते; न तुम शून्य को प्रेम करना चाहते हो। शून्य में
मन की सब गति रूक जाती है। कोई कामना नहीं उठती। और जहां चाह नहीं है वहीं
शांति है। तुम सौम्य और शांत हो जाते हो। तुम्हारे भीतर सहसा शांति का
विस्फोट होता है। तुम आकाश वत हो गए।
दूसरी बात कि तुम जिस चीज का भी मनन चिंतन करते हो, तुम उसके
जैसे ही हो जाते हो। तुम वहीं हो जाते हो। क्योंकि मन अनंत रूप धारण कर
सकता है। तुम जो भी चाहते हो, मन उसके ही रूप ले लेता है; तुम वही बन जाते
हो। जो आदमी धन-दौलत के पीछे भागता है, उसका मन धन-दौलत ही बन जाता है। उसे
हिलाओ तुम उसके भीतर रुपयों की झनझनाहट सुनोंगे। और कुछ नहीं सुनोंगे। तुम
जो भी चाहते हो तुम वहीं हो जाते हो। इसलिए अपनी चाह के प्रति सावधान रहो;
क्योंकि तुम वही हो जाते हो।
आकाश सर्वथा रिक्त है, खाली है। उससे ज्यादा रिक्त और क्या
हो सकता है। और वह दूसरे तुम्हारे बिलकुल निकट है। उसके लिए कुछ खर्चा
करना की भी जरूरत नहीं है। और उसे पाने के लिए तुम्हें हिमालय या तिब्बत
या कहीं भी नहीं जाना है। विज्ञान ने, टेक्नोलॉजी ने सब कुछ नष्ट कर दिया
है। लेकिन आकाश बचा हुआ है। तुम उसका उपयोग कर सकते हो। इसके पहले कि वे
उसे नष्ट कर दें। तुम उसका उपयोग कर लो। किसी भी दिन वे उसे नष्ट कर
देंगे।
उसे देखो, उसमे प्रवेश करो। उसमें गहरे डुबो। लेकिन याद रहे, यह
देखना निर्विचार देखना हो। तब तुम अपने अंतस में उसी आकाश को अनुभव करोगे।
उसी आयाम को अनुभव करोगे। तब वह विराट, वहीं नीलिमा, वही शून्य तुम्हारे
भीतर होगा।
तंत्र सूत्र
ओशो
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