हर आदमी अपने को समझता है कि मैं स्वतंत्र हूं! इससे बड़ा झूठ और कुछ
भी नहीं हो सकता। और जब तक आदमी यह समझता रहता है कि मैं स्वतंत्र हूं, मैं एक स्वतंत्र आत्मा हूं, तब तक, तब तक वह आदमी स्वतंत्रता की खोज में कुछ भी नहीं करेगा।
इसलिए पहला सत्य समझ लेना जरूरी है कि हम परतंत्र हैं। हम का मतलब पड़ोसी नहीं, हम का मतलब मैं। हम का मतलब यह नहीं कि और लोग जो मेरे आस-पास बैठे हों। वे नहीं, मैं।
मैं एक गुलाम हूं और इस गुलामी की जितनी पीड़ा है, उस पूरी पीड़ा को अनुभव करना जरूरी है। इस गुलामी के जितने आयाम हैं, जितने डायमेंशंस हैं, जितनी दिशाओं से यह गुलामी पकड़े हुए है, उन दिशाओं को भी अनुभव कर लेना जरूरी है। किस-किस रूप में यह गुलामी छाती पर सवार है, उसे समझ लेना जरूरी है। इस गुलामी की क्या-क्या कड़ियां हैं, वे देख लेना जरूरी है। जब तक हम इस आध्यात्मिक दासता से, स्प्रिचुअल स्लेवरी से पूरी तरह परिचित नहीं हो जाते, तब तक इसे तोड़ा भी नहीं जा सकता।
अगर कोई कैदी किसी कारागृह से भागना चाहे तो सबसे पहले क्या करेगा? सबसे पहले तो उसे यह समझना होगा कि मैं कैदी हूं, कारागृह में हूं। और दूसरी बात यह करनी पड़ेगी कि कारागृह की एक-एक दीवार, एक-एक कोने से परिचित होना पड़ेगा, क्योंकि जिस कारागृह से निकलना हो, उससे बिना परिचित हुए कोई कभी नहीं निकल सकता। जिस कारागृह से निकल जाना है, उस कारागृह का परिचय जरूरी है। उससे जो जितना ज्यादा परिचित होगा, उतना ही आसानी से कारागृह से बाहर हो सकता है।
इसलिए कारागृह के मालिक कभी भी कैदी को कारागृह की दीवारों से, कोनों से परिचित नहीं होने देते। कारागृह से परिचित कैदी खतरनाक है। वह कभी भी कारागृह से बाहर आ सकता है। क्योंकि ज्ञान सदा मुक्त करता है। कारागृह का ज्ञान भी मुक्त करता है। इसलिए कारागृह से परिचित होना बहुत खतरनाक है मालिकों के लिए।
और कारागृह से अगर अपरिचित रखना हो कैदी को तो सबसे पहली तरकीब यह है कि उसे समझाओ कि यह कारागृह नहीं है, भगवान का मंदिर है! यह कारागृह है ही नहीं! और उसे समझाओ कि तुम कैदी नहीं हो, तुम तो एक स्वतंत्र व्यक्ति हो! और उसे समझाओ कि इतनी ही तो दुनिया है, जितनी इस दीवार के भीतर दिखाई पड़ती है! इसके बाहर कोई दुनिया ही नहीं है, बाहर कोई दुनिया ही नहीं है। बस यही सब-कुछ है! और उसे समझाओ, कि अगर तकलीफ होती है तो दीवारों को लीपो, पोतो, साफ करो। दीवारें गंदी है, इसलिए तकलीफ होती है। दीवारों को साफ-सुथरा करो--कारागृह की दीवारों को। और अगर तकलीफ होती है तो उसका मतलब है बगीचा लगाओ कारागृह के भीतर, फूल-फुलवारी लगाओ; सुगंध आने लगेगी, आनंद आने लगेगा! कारागृह को सजाओ, अगर तकलीफ है तो काराग्रह को सजाओ, क्योंकि यह कारागृह नहीं है, यह तो घर है!
और जो कैदी इन बातों को मान लेगा, वह कैदी कभी मुक्त हो सकता है? उसके मुक्त होने का सवाल ही दीवालें कारागृह की नहीं हैं। जब एक हिंदू कहता है कि मैं हिंदू हूं। जब एक मुसलमान कहता है कि मैं मुसलमान हूं, तो वह इस तरह नहीं कहता कि मैं मुसलमान की दीवार के भीतर बंद हूं। वह अकड़ से कहता है, जैसे मुसलमान, होना, हिंदू होना, जैन होना कोई बड़ी कीमत की बात है! जब एक आदमी कहता है, मैं भारतीय हूं और एक आदमी कहता है कि मैं चीनी हूं, तो बहुत अकड़ से कहता है! उसे पता भी नहीं कि ये भी दीवारें हैं और रोकती है बड़ी मनुष्यता से मिलने में।
जो भी चीज रोकती है, वह दीवाल है।
सत्य की खोज
ओशो
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