समग्र स्वीकार का अर्थ है किसी भी बात के लिए निषेध नहीं। जब तुम
स्वीकार करते हो तो तुम कुछ शर्तों के साथ स्वीकार करते हो। तुम कहते हो,
”अच्छा ठीक है, मैं यह करूंगा लेकिन यदि ऐसा न हुआ तो। मैं चोरी करूंगा यदि
परमात्मा मुझे नर्क में न गिराये तो। मैं चोरी कर सकता हूं यदि उसमें कोई
पाप न हो तो। मैं चोरी कर सकता हूं यदि लोग मेरा अपमान नहीं करें तो।” लोग
जो करेंगे उसे भी स्वीकार करना है। समग्र स्वीकार एक बहुत ही जीवंत ढंग है
जीने का। लेकिन तब सभी कुछ स्वीकार होता है। जो भी फिर परिणामस्वरूप होता
है उसका भी स्वीकार है। किसी भी बात के लिए किसी भी बिंदु पर निषेध नहीं
है। यह अंतिम बात है, आत्यंतिक मार्ग है जीवन का। वस्तुत: ऐसा ही संन्यासी
होना चाहिए। संन्यासी के पास समग्र स्वीकार होना चाहिए।
लेकिन जब हम कहते हैं कि तुम सपने निर्मित कर सकते हो तो हम निषेध नहीं
कर रहे हैं। हम सिर्फ एक तथ्य की घोषणा कर रहे हैं। यदि तुम चाहो तो सपने
निर्मित कर सकते हो। मैं उन्हें सरलता से निर्मित करने में तुम्हारी सहायता
कर सकता हूं। लेकिन स्मरण रहे कि वे सपने ही हैं।
समस्या तो तब खड़ी होती है जब सपना सत्य हो जाता है। तुम अपने कृष्ण के
साथ खेल सकते हो, तुम उनके साथ नृत्य कर सकते हो। उसमें क्या बुरा है?
नृत्य अपने आप में अच्छा ही है, उसमें गलत क्या है? तुम अपने कृष्ण के साथ
खेल ही तो रहे हो, उसमें तुम किसी का कुछ नुकसान तो नहीं कर रहे हो। नाचो
और खेलो। तुम्हारे लिए ठीक होगी यह बात। लेकिन याद रहे कि यह बात सत्य नहीं
है, वास्तविक नहीं है। यह एक प्रक्षेपण है, तुमने ही निर्मित किया है।
यदि तुम इसे स्मरण रख सको तो तुम खेल खेल सकते हो, लेकिन तुम कभी भी
उससे तादात्म्य नहीं जोड़ोगे। तुम इसके प्रति जागते चले जाओगे कि यह एक खेल
है। एक खेल सिर्फ एक खेल ही है यदि तुम उससे तादात्म्य नहीं जोड़ते हो तो।
यदि तुम तादात्म्य निर्मित कर लेते हो, तो वह एक गंभीर बात हो जाती है। वह
एक समस्या हो जाती है। अब तुम उससे ग्रसित रहोगे।
केनोउपनिषद
ओशो
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