संसार में तीन सौ धर्म हैं। तीन सौ धर्मो के तीन सौ धर्मशास्त्र हैं।
बड़े अनूठे धर्मशास्त्र हैं। एक-एक धर्मशास्त्र अपने आपमें अदभुत है। इतना
कह देना काफी नहीं है, कि मैंने अनुभव किया, सब पहुंचा देते हैं। इसको बड़े
विस्तार से, इसको बड़े वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तावित करना जरूरी है। अनुभव तो
भीतर होता है। मैंने अनुभव कर लिया, इससे क्या हल होता है? मेरा अनुभव
इतनी प्रगाढ़ता से उपस्थित किया जाना चाहिए, कि वह हजारों लोगों के मन की
आकांक्षा बनने लगे।
रामकृष्ण के पास बुद्ध जैसी क्षमता न थी, कि करोड़ों लोग रूपांतरित हो
जाएं। न ही महावीर जैसी प्रतिभा थी कि वे जो कहें, वह उनके कहने के कारण
सत्य मालूम होने लगे। ग्रामीण संत थे, लेकिन बड़ा अनूठा प्रयोग किया,
पायोनियर थे। उस दिशा में उन्होंने पहला कदम उठाया।
उस दिशा में और कदम उठाए जाने जरूरी हैं। इसलिए मैं सभी साधना-पद्धतियों
पर बोल रहा हूं। और तुम बड़ी मुश्किल में भी पड़ जाते हो। क्योंकि आज मैं
कहता हूं यह ठीक है, कल कहता हूं वह ठीक है। वस्तुतः दोनों ठीक हैं।
तुम्हारी अड़चन यह हो जाती है, कि तब तुम क्या करो, कहां चलो, कैसे चलो।
तुम्हारे अड़चन के कारण ही तो संप्रदाय पैदा हो गए हैं। इसलिए बुद्ध ने कहा,
कि यही ठीक है तुम्हारी अड़चन को बचाने के लिए। तुम्हारी अड़चन तो बची।
लेकिन सारी दुनिया संप्रदायों में विभाजित हो गई। अब वह बड़ी अड़चन हो गई। अब
मैं तुम से कहूंगा कि सभी ठीक हैं, तब तुम्हें एक खयाल रखना होगा, तुम्हें
सभी मार्गो पर नहीं चलना है, तुम्हें अपना व्यक्तित्व समझ लेना है। मैं
सभी मार्गो पर बोलता रहूंगा।
केमिस्ट की दुकान में तुम जाते हो, वहां हजारों बीमारियों की दवाइयां
रखी हुई हैं। इससे तुम्हें प्रयोजन नहीं है। तुम्हारे पास तो डाक्टर का
प्रिस्क्रिप्शन है। तुम अपने प्रिस्क्रिप्शन की दवा ले कर लौट जाते हो। तुम
यह नहीं पूछते, कि इतनी सारी दवाएं!
मैं तो मर जाऊंगा ले ले कर। इतनी सारी दवाएं तुम्हें लेना भी नहीं
है।मैं तो केमिस्ट हूं। तुम्हें इतनी सब दवाएं लेने की जरूरत नहीं है। इतनी
सब दवाएं तो तुम्हें मार ही डालेंगी। तुम तो अपनी बीमारी पकड़ लो। तुम अपनी
बीमारी पहचान लो। वह भी मैं तुम्हें पहचनवा देने को तैयार हूं। और तुम
अपने योग्य दवा चुनलो। सारी दुकान को तुम भूल जाओ। तुम्हारे लिए तो एक ही
विधि पहुंचा देगी। न तुम्हें रामकृष्ण होने की जरूरत है, कि तुम सारी
सीढ़ियों से चढ़ कर देखो। न तुम्हें मुझ जैसा होने की जरूरत है, कि तुम सारी
सीढ़ियों की चर्चा करो; कि सारी सीढ़ियां सही हैं, ऐसा सिद्ध करो। इस सब
प्रयोजन में तुम्हें कुछ सार नहीं है। वह तुम्हारी नियति नहीं है।
तुम्हारे लिए तो इतना जरूरी है कि तुम अपनी प्यास पहचान लो, अपना घाट
पहचान लो, अपनी प्यास बुझा लो। अपनी नाव पहचान लो, अपनी नाव पर सवार हो जाओ
और पार हो जाओ।
कहे कबीर दीवाना
ओशो
No comments:
Post a Comment