इस मनोदशा का अगर भीतर प्रवेश हो, तो संतोष संभव नहीं है।
संतोष किसी व्यवस्था में संभव है; वह एक भरोसे की व्यवस्था है। असंतोष संदेह की एक व्यवस्था है। अगर दोनों साथ चाहते हैं तो कठिनाई खड़ी हो जाती है।
एक मित्र आए थे, वे कहते हैं कि मुझे मृत्यु का बड़ा भय है और आत्मा में मेरा कोई.. जरा भी आस्था नहीं बैठती कि आत्मा है। मैंने उनसे कहा. अगर आत्मा बिलकुल नहीं है तो मृत्यु के भय की क्या जरूरत है? आप मरे हुए हैं ही; अब और मरने को बचा क्या? और अगर आत्मा में भरोसा है तो फिर मृत्यु के भी भय की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि वह नहीं मरेगी। आप दो में से कुछ एक तय कर लें। अगर यह बिलकुल पक्का आपका खयाल हो गया है कि आत्मा नहीं है, तो मृत्यु का भय अब बिलकुल पागलपन है–जो है ही नहीं वह मरेगा क्या? आप खाली एक जोड़ हो, बिखर जाओगे। और जोड़ बिखरेगा तो दर्द किसको होने वाला है? किसी को भी नहीं। एक घड़ी को जब हम बिखेर कर रख देते हैं, तो किसको पीड़ा होती है? कुछ नहीं, सिर्फ जोड़ था, बिखर गया। कोई पीछे तो बचता नहीं जिसको पीड़ा हो। पक्का समझ लें कि कुछ नहीं है आत्मा तो फिर तो आपको मृत्यु का कोई कारण ही नहीं है।
उन्होंने कहा. और अगर आत्मा है?
अगर…! अगर आत्मा है, इसका कोई मतलब नहीं होता। मतलब आप अपने मृत्यु के. भय को कायम ही रखना चाहते हैं। अगर आत्मा है.. उनका मतलब यह कि मृत्यु का भय तो है ही। अगर आत्मा न मानने से नहीं रखा जा सकता है भय, तो हम इस तक के लिए राजी हैं कि आत्मा है, लेकिन भय का क्या करें? मैंने उनको कहा. अगर आत्मा है तब तो भय की कोई जरूरत ही नहीं, क्योंकि आत्मा का अर्थ ही इतना होता है कि मृत्यु नहीं है।
पर इनकी तकलीफ क्या है? इनकी तकलीफ यह है कि कहीं गहरे में ये बचना भी चाहते हैं, कहीं गहरे में जीना भी चाहते हैं, सदा, फिर भरोसा भी नहीं कर पाते कि सदा जीना हो भी सकता है। स्वयं के विरोध में स्वर हैं। तो ऐसा व्यक्ति अपने को ही काटता चला जाता है।
मन, एक भ्रमणा हो जाती है, क्योंकि हम विरोधी विचारों को इकट्ठा कर लेते हैं। अगर मन की काया को शुद्ध करना है, तो मन की काया को शुद्ध करने का एक ही उपाय है और वह है. विचारों में एक तरह का सामंजस्य चाहिए, एक संगीतबद्धता चाहिए, एकस्वरता चाहिए, एक हार्मनी चाहिए, तो मन की काया शुद्ध होती है और आदमी भीतर प्रवेश करता है।
सर्वसार उपनिषद
ओशो
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