जो हम कर रहे है, वह हम शायद ही मन:पूर्वक करते है। जो हम करते हे, यंत्रवत करते है, मन और हजार काम करता है। जैसे रहा पर चल रहे है शरीर तो राह पर होता है, मन न मालूम कहीं और। हो सकता है घर पर हो, दुकान पर हो, मंदिर में हो, लेकिन इतना सुनिश्चित है, कि वह वहां नहीं होगा जहां तुम हो, जिस दिन वहीं हो जाए जहां तुम हो। उस दिन आत्मबोध का प्रांरभ होता है।
मन का और शरीर का एक साथ, एक ही स्थान, एक ही काल में हो जाना ध्यान है। मन और शरीर अलग-अलग चलते रहते है। और जब तम उन दोनों का मिलन न हो, तब तक तुम्हें उसका पता न चल सकेगा
जो दोनों के पार है।
जिन सूत्र
ओशो
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