जल्दी से ज्यादा देर कराने वाला और कोई तत्व नहीं है। जितनी
जल्दी करोगे, उतनी देर हो जाएगी। क्योंकि जल्दी में कुछ भी गहरा तो हो ही
नहीं पाता, सतह पर ही हो सकता है।
अगर संसार से भागने की भी जल्दी की, तो गहरे में संसार से बंधे रह
जाओगे। तब तुम्हारी स्वतंत्रता वैसी ही होगी, जैसे घोड़े को खूंटे से बांध
दिया हो, लेकिन काफी लंबी रस्सी दे दी हो। घूमता रहता है उसी रस्सी से
बंधा। सोचता है, स्वतंत्र है। लेकिन स्वतंत्र नहीं है। जल्दी ही अनुभव में आ
जाएगा कि बंधा है।
रस्सी लंबी हो सकती है। संसार से बिना अनुभव के जो भाग गया, उसकी रस्सी
लंबी हो सकती है। वह हिमालय में भी रहे, बाजार की खूंटी से ही बंधा रहेगा;
चित्त तो वहीं घूमेगा।
चित्त तो वहीं घूमता है, जहां अधूरा अनुभव रह जाता है। फिर तुम चित्त के
घूमने से मुक्त होना चाहते हो। वह तुम न कर पाओगे। अड़चन चित्त की नहीं है,
अधूरे अनुभव की है।
अब एक आदमी मेरे पास आता है। वह कहता है, जब भी ध्यान करने बैठता हूं संसार भर की चीजें याद आती हैं।
इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है, मन वहां जाना चाहता है, जहां से
अतृप्त लौट आया है। अतृप्त तो वह भी लौटेगा, जो पूरा जानकर लौटा है, लेकिन
तब अतृप्ति सुनिश्चित हो जाएगी। अभी इसकी अतृप्ति सुनिश्चित भी नहीं है।
अभी यह सोचता है, शायद तृप्ति मिल जाती, शायद मैं जल्दी आ गया। मैंने पूरा
खोजा नहीं, कहीं कोई खजाना हो ही। किसी और उपाय से सफलता मिल जाती। सारा
संसार गलत तो नहीं हो सकता। इतने लोग घूम रहे हैं, खोज रहे हैं धन, पद,
प्रतिष्ठा। सभी पागल तो नहीं हो सकते। इसे अपने पर संदेह आता है, क्योंकि
अपना अनुभव मजबूत नहीं है।
मैं एक सड़क से गुजर रहा था एक नगर में और एक चर्च के द्वार पर मैंने एक
तख्ती लगी देखी। छपी हुई तख्ती लगी थी। शायद और चर्चों के द्वार पर भी लगाई
गई होगी। तख्ती पर लिखा था, इफ टायर्ड आफ सिन, कम इन अगर पाप से थक गए तो
भीतर आ जाओ।
तख्ती बड़ी मौजूं मालूम पड़ी। लेकिन तख्ती के नीचे हाथ से घसीटे अक्षरों
में जैसे किसी ने लाल लिपिस्टिक से लिखा था, इफ नाट, देन फोन, फोर सेवन वन
वन अगर न थके हों, तो फोन नंबर चार सात एक एक पर खबर करें। किसी वेश्या का
पता था। बात तो और भी मौजूं लगी। थक गए हों पाप से, तो ही मंदिर में जाने
का उपाय है। न थके हों, तो वेश्यागृह खोजना ही उचित है। क्योंकि जो थककर
नहीं जाएगा, वह मंदिर में तो चला जाएगा, लेकिन मन वेश्यागृह में छूट जाएगा।
और असली सवाल मन का है, तुम्हारी देह का नहीं है। तुम अपनी देह को तो
पूरा का पूरा साष्टांग मंदिर में ले जा सकते हो, लेकिन मन को कैसे ले
जाओगे? मन तुम्हारी सुनता नहीं। तुम मंदिर में होते हो, मन अपने मंदिरों
में भटकता है। तो मंदिर में बीता वह समय व्यर्थ ही गया, जब मन वहां न था।
इसलिए कहता हूं जल्दी मत करना। और मैं रहूं या न रहूं अगर तुमने जल्दी न
की, तो कोई न कोई तुम्हें मिल जाएगा। रूप रंग बदल जाते हैं, नाम बदल जाते
हैं, पर कोई राह पर तुम्हें मिल जाएगा, जो आगे का इशारा कर देगा।
जब भी तुम तैयार हो, इशारा करने वाला मिल ही जाता है। वह जीवन के गणित
का हिस्सा है। उसमें जरा भी संशय का कोई कारण नहीं है। उससे भिन्न कभी हुआ
ही नहीं है।
जब शिष्य तैयार है, गुरु उपलब्ध हो जाता है।
अगर तुमने जिद्द की मुझसे ही मिलने की, तो तुम वंचित रह जाओगे। अगर
तुम्हें गुरु चाहिए, तो गुरु मिल जाएगा। लेकिन अगर गुरु का भी आग्रह है कि
वह इसी रूप रंग में मिले, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तो तुम गुरु खोज ही
नहीं रहे हो। तुम कोई मोह, कोई आसक्ति खोज रहे हो। तब तुम्हारा संसार इतना
बड़ा है कि उसने गुरु को भी डुबा लिया है। तब तुम्हारा गुरु भी संसार का ही
हिस्सा है।
अन्यथा तुम्हें क्या प्रयोजन है कि महावीर से राह मिलती है, कि बुद्ध
से, कि क्राइस्ट से, कि मोहम्मद से! जो भी मिल जाएगा, तुम उससे पूछ लोगे।
तुम स्टेशन की तरफ भागे जा रहे हो, राह पर कोई आदमी मिल जाता है। तुम
उससे पहले यह पूछते हो कि आप हिंदू हैं या मुसलमान, क्योंकि मैं पूछना
चाहता हूं स्टेशन का रास्ता कहां है! कोई भी नहीं पूछता हिंदू मुसलमान को,
तुम रास्ता पूछ लेते हो। तुम यह भी नहीं पूछते रास्ता पूछने के बाद कि तुम
हिंदू थे कि मुसलमान! रास्ते से प्रयोजन है, मंजिल से प्रयोजन है। जिसने भी
बता दिया, धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाते हो।
मुझसे क्या लेना देना है? कोई न कोई मिल जाएगा, जल्दी मत करना। और मजे
की बात यह है कि अगर तुम जल्दी न करो, तो शायद मुझसे ही तुम्हें राह मिल
जाए। अगर तुम जल्दी करो, तो मुझसे तो मिल ही न पाएगी, आगे भी वह जो
जल्दबाजी है, वह तुम्हें चुकाती चली जाएगी। जल्दबाजी चुकाती है, क्योंकि
जल्दबाजी उत्तेजना है। वह एक तने हुए चित्त का लक्षण है। वह एक परेशान,
व्यथित चित्त की दशा है।
गीता दर्शन
ओशो
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