कामवासना कोई व्यक्तिगत जरूरत नही है। यह एक अधिपत्य है। यदि तुम रोक
दो तो तुम इस कारण बहुत कुछ पाओगे। लेकिन रोकना तीन प्रकार को हो सकता है।
तुम दमन कर सकते हो। अपनी इच्छा का। लेकिन उससे मदद न मिलेगी। तुम्हारी
कामवासना विकृत हो जायेगी। इसलिए मैं कहता हूं कि विकृत हो जाने से
स्वाभाविक होना बेहतर है। जैन मुनि, बौद्ध भिक्षु, ईसाई, कैथोलिक साधु, जो
सब जाए होते है। मात्र पुरूष समाज में। पुरूष समूहों में, सौ में से
नब्बे प्रतिशत या तो हस्त मैथुन करने वाले होते है। या फिर
होमोसेक्सुअल,या समलैंगिक। ऐसा होगा ही, क्योंकि कहीं जाएगी ऊर्जा, और वे
केवल दमन करते रहते है। उन्होंने हर्मोन्स के तत्व को तंत्र को, शरीर
के रसायन को रूपांतरित नहीं किया होता। वे नहीं जानते क्या करना है। इसलिए
वे केवल दमन ही करते है। और फिर दमन बन जाता है एक विकृति।
मैं पहले
प्रकार की विधियों के विरोध में हूं। स्वाभाविक होना बेहतर है। विकृत होने
से। क्योंकि विकार ग्रसित व्यक्ति गिर रहा होता है स्वाभाविक से नीचे,
वह पार नहीं जा रहा होता।और यह बात भी जीवन की दूसरे प्रकार की समस्याओं की और ले जा सकती
है। तुम स्त्री से भय भीत हो जाओगे। क्योंकि जिस क्षण वह निकट आती है
तुम्हारा बदला हुआ रसायन फिर से धारण कर लेगा पुराना ढांचा। एक प्रवाह।
स्त्री की खास ऊर्जा होती है, स्त्री-ऊर्जा चुंबकीय होती है। और बदल देती
है तुम्हारे शरीर की ऊर्जा को।
इसलिए हठ योगी तो भयभीत हो गए स्त्रियों
से। वे भाग गए हिमालय की तरफ और गुफाओं की तरफ। भय अच्छी चीज नहीं है। और
यदि तुम भयभीत होते हो, तो तुम उसमे जा पड़ते हो। यह ऐसा है जैसे एक आदमी
अंधा हो जाता है। ताकि वह देख नहीं सके स्त्री को, लेकिन कोई ज्यादा मदद न
मिलेगी उस बात से। तो फिर अंधों में तो काम वासना उठनी ही नहीं चाहिए।
तीसरे प्रकार की विधि है; ज्यादा सजग हो जाना। शरीर को मत
बदलना जैसा कि वह है, अच्छा है वह। उसे स्वाभाविक बना रहने दो; तुम
ज्यादा सजग हो जाओ। जो कुछ घटता है मन में और शरीर में तुम सजग हाँ जाओ।
स्थूल ओर सूक्ष्म पर्तों पर ज्यादा से ज्यादा होश पूर्ण हो जाओ। बस केवल
होश पूर्ण होने से साक्षी होने मात्र से, तुम और ऊंचे से उचे उठते चले
जाते हो। और एक क्षण आता है जब मात्र तुम्हारी ऊँचाई के कारण, मात्र
तुम्हारी शिखर चेतना के कारण, घाटी बनी रहती है वहां,लेकिन तुम अब नहीं
रहते घाटी के हिस्से। तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। शरीर कामवासनामय बना
रहता है, लेकिन तुम वहां नहीं रहते उसका सहयोग देने को। शरीर तो बिलकुल
स्वभाविक बना रहता है। लेकिन तुम उसके पास जा चुके होते हो। वह कार्य नहीं
कर सकता है बिना तुम्हारे सहयोग के। ऐसा घटा बुद्ध को।
इस शब्द ‘’बुद्ध’’ का अर्थ है वह व्यक्ति जो कि जागा हुआ है।
यह केवल गौतम बुद्ध से संबंध नहीं रखता है। बुद्ध कोई व्यक्तिगत नाम नहीं
है। यह चेतना की गुण वता है। क्राइस्ट बुद्ध है, कृष्ण बुद्ध है, और
हजारों बुद्धों का आस्तित्व रहा है। यह चेतना की एक गुणवता है और यह
गुणवता क्या है? जागरूकता। ज्यादा ऊंची और ज्यादा ऊंची जाती है जागरूकता
की लौ और एक क्षण आ जाता है जब शरीर मौजूद होता है पूरी तरह क्रियान्वित
और स्वाभाविक, संवेदनशील, संवेग वान, जीवंत, लेकिन तुम्हारा सहयोग वहां
नहीं होता। तुम अब साक्षी होते हो। कर्ता नहीं कामवासना तिरोहित हो जाती
है।
पतंजलि योगसूत्र
ओशो
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