मन और शरीर के बीच में जो सेतु है, वह प्राण काया का है। इन दोनों
को जोड़ने वाला जो सेतु है वह प्राण का है। इसलिए श्वास बंद हो गई, शरीर
यहीं पड़ा रह जाता है, मनोमय कोष नई यात्रा पर निकल जाता है।
मृत्यु में स्थूल देह नष्ट होती है, मनोदेह नष्ट नहीं होती। मनोदेह तो
केवल समाधिस्थ व्यक्ति की नष्ट होती है। जब एक आदमी मरता है तो उसका मन
नहीं मरता, सिर्फ शरीर मरता है; और वह मन नई यात्रा पर निकल जाता है सब
पुराने संस्कारों को साथ लिए। वह मन फिर नये शरीर को उसी तरह ग्रहण कर लेता
है और करीब-करीब पुरानी शक्ल के ही ढांचे पर फिर से निर्माण कर लेता
है–फिर खोज लेता है नया शरीर, फिर नये गर्भ को धारण कर लेता है।
इन दोनों के बीच में जो जोड़ है वह प्राण का है। इसलिए आदमी बेहोश हो
जाए, तो भी हम नहीं कहते, मर गया, बिलकुल कोमा में पड़ जाए, महीनों पड़ा रहे,
तो भी हम नहीं कहते कि मर गया, लेकिन श्वास बंद हो जाए तो हम कहते हैं, मर
गया, क्योंकि श्वास के साथ ही शरीर और मन का संबंध टूट जाता है।
और यह भी ध्यान रखें कि श्वास के साथ ही शरीर और मन का संबंध प्रतिपल
परिवर्तित होता है। जब आप क्रोध में होते हैं तब श्वास की लय बदल जाती है..
तत्काल, जब आप कामवासना से भरते हैं तो श्वास की लय बदल जाती है… तत्काल;
जब आप शांत होते हैं तो श्वास की लय बदल जाती है… तत्काल। अगर मन अशांत है
तो भी श्वास की लय बदल जाती है, अगर शरीर बेचैन है तो भी श्वास की लय बदल
जाती है। श्वास का जो रिदम है वह पूरे समय परिवर्तित होता रहता है, क्योंकि
इधर शरीर बदला तो, उधर मन बदला तो। इसलिए जो लोग श्वास की रिदम को, श्वास
की लयबद्धता को ठीक से समझ लेते हैं, वे मन और शरीर की बड़ी गहरी मालकियत को
उपलब्ध हो जाते हैं।
सर्वसार उपनिषद
ओशो
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