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Tuesday, January 19, 2016

विचारों का विज्ञान

विचार भी वस्तुगत है, अत्यंत सूक्ष्म है। पर हम उसका भी भोजन कर रहे हैं। और प्रतिपल हम अपने भीतर विचार को ले जा रहे हैं। वह विचार हमारे भीतर एक काया को निर्मित कर रहा है; एक शरीर निर्मित हो रहा है। विचार की ईंटों से बना हुआ वह भवन है। इसीलिए कैसा विचार आप अपने भीतर ले जा रहे हैं वैसी आपकी मनोकाया होगी।

आदमी बहुत असुरक्षित है इस लिहाज से। इस सदी में तो बहुत असुरक्षित है।

रेडिया विचार डाल रहा है, अखबार विचार डाल रहे हैं, नेता विचार डाल रहे हैं, विज्ञापनदाता विचार डाल रहे हैं सब तरफ से विचार डाले जा रहे हैं आदमी में, और कई बार आप सोचते हैं कि आप निर्णय कर रहे हैं, आप बड़ी गलती में हैं।

वीन पेकार्ड ने एक किताब लिखी है. दि हिडन परसुएडर्स। आप सोचते हैं… दुकान पर जाकर आप कहते हैं कि मुझे बर्कल सिगरेट चाहिए। आप सोचते हैं, आपने चुनी है, तो आप बड़ी गलती में हैं। हिडन परसुएडर्स हैं चारों तरफ। अखबार से आपको कह रहे हैं, बर्कले सिगरेट खरीदो। तख्ती लगी हैं–दुकानों पर, दीवालों पर; नाम लिखा है; फिल्म देखने जाते हैं वहां बर्कले सिगरेट है; रेडियो में सुनते हैं वहां बर्कले सिगरेट है.. जहां देखें वहां बर्कले सिगरेट है, वह आपके दिमाग में डाल दी गई है बात।


अमरीकन विज्ञापनदाता कहते हैं कि जो भी आदमी खरीदता है उसमें नब्बे परसेंट हम खरीदवाते हैं; और दस परसेंट वह जो खरीद रहा है, वह उसकी कला नहीं है, वह केवल विज्ञापन की कला का अभी पूरा विकास नहीं हुआ; उसमें कुछ आदमी की वह नहीं है… अभी हम पूरा… जैसे-जैसे हम विकास कर लेंगे, हंड्रेड परसेंट–हम जानते हैं कि यह आदमी को हम क्या खरीदवा देंगे; यह क्या खरीदेगा।

 
इससे बचने की कुछ फिकर करनी जरूरी है, नहीं तो आप स्वतंत्र नहीं हैं, अगर आपका मन दूसरे निर्मित कर रहे हैं तो आप स्वतंत्र नहीं हैं। आपके मां-बाप आपको धमई दे देते हैं, आपके गुरु स्कूल में आपको शान दे देते हैं, फिर अखबार और विज्ञापनदाता और बाजार के लोग आपको चीजें खरीदने के सुझाव दे देते हैं, फिर इनके आस-पास आप जिंदगी भर जीए चले जाते हैं।


अब अमरीका में मोटरें ज्यादा उत्पादित हो रही हैं और खरीददार कम हो गए हैं, क्योंकि सभी के पास गाड़ियां करीब-करीब हो गई हैं। तो चिंतित हैं दुकानदार कि अब क्या करना है। तो पिछले पांच सालों से एक नये विचार को प्रमोशन दिया जा रहा है और वह यह कि अमीर आदमी वही है जिसके पास दो गाड़ियां हैं। अब दो गाड़ियां लोग रखना शुरू कर दिए हैं। एक गाड़ी गरीब आदमी का सबूत है। सिर्फ एक ही गाड़ी है आपके पास! वह गरीब आदमी का सबूत है। और एक दफा गरीबी और एक गाड़ी को जोड़ने भर की बात है कि फिर दो गाड़ी के बिना काम नही चल सकता। अमीर आदमी के पास कम से कम दो मकान होने ही चाहिए–एक शहर में, एक बीच पर या पहाड़ पर। गरीब आदमी के पास एक ही मकान होता है। बस, एक बार विचार भीतर पहुंचा देने की जरूरत है कि फिर आप दीवाने होने शुरू हो जाते हैं… और सोचते हैं सदा आप यह कि यह मैं सोच रहा हूं यहीं धोखा है।


मनोकाया शब्द-निर्मित है। हम सब जानते हैं, नाम-जप के संबंध में हमने बहुत कुछ सुना है, सबने जाना है, लोगों को करते भी देखते हैं, लेकिन आपको पता नहीं होगा : इट इज सिम्पली ए प्रोटेक्टिव मेथड एंड नथिंग एल्म; नाम-जप जो है, वह एक सुरक्षा का उपाय है। अगर एक व्यक्ति रास्ते पर राम-राम भीतर जपता हुआ गुजरे, तो दूसरे शब्द उसके भीतर प्रवेश नहीं कर पाएंगे; क्योंकि शब्द-प्रवेश के लिए अंतराल चाहिए, खाली जगह चाहिए।


एक आदमी चौबीस घंटे अगर भीतर राम-जप करता रहे–बुहारी लगाता हो, भीतर राम-राम चलता हो; खाना खाता हो, भीतर राम-राम चलता हो; दुकान जाता हो, भीतर राम-राम चलता हो; किसी से बात भी करता हो तो भी भीतर राम-राम चलता हो, तो उसने एक प्रोटेक्टिव मेजर खड़ा कर लिया; अब आप हर कुछ उसके भीतर नहीं डाल सकते। अब एक सघन पर्त, उसके भीतर राम की दीवाल खड़ी है। अब इस राम की दीवाल को पार करके आसान नहीं है कि कुछ भी चला जाए। वह आदमी अपनी मनोकाया को एक विशेष रूप और आकृति देने की कोशिश में लगा है।


और यह भी बड़े मजे की बात है कि यह राम की जो दीवाल अगर खड़ी हो जाए, तो इसमें से अगर कभी कुछ प्रवेश भी करेगा, तो वह प्रवेश वही चीज कर पाएगी जो राम की धारणा से तालमेल खा सके, अन्यथा नहीं कर पाएगी। एक एफिनिटि चाहिए तो भीतर प्रवेश हो जाएगी। जैसे अगर कोई ऐसे आदमी के पास जोर से कहे, रावण, तो दीवाल से टकरा कर शब्द वापस लौट जाएगा; और कोई कहे, सीता, तो भीतर प्रवेश कर जाएगा। यह जो पर्त है, यह अब अपने अनुकूल जो है उसे गति दे देगी और प्रतिकूल जो है उसे रोक देगी। और यह व्यक्ति अपने भीतर की मनोकाया का एक अर्थों में मालिक होना शुरू हो जाएगा–जिसको द्वार देना होगा, देगा, जिसको द्वार नहीं देना होगा, नहीं देगा।


और अगर हम अपने मन के भी मालिक नहीं हैं तो फिर हम किस बात के मालिक हो सकते हैं? यह जो मन है, यह हमारा तो करीब-करीब विक्षिप्त है, क्योंकि हम विरोधी चीजों को मन में एक साथ ले जा रहे हैं–अनंत विरोधी चीजों को! लौग कहते हैं, बड़ा चित्त बेचैन है, विभ्रम में है, कन्फ्यूज़्ड सर्वसार उपनिषद है। बड़ी हैरानी की बात है कि वे इसको समझते हैं कि यह कोई बीमारी है जिसको ठीक करना पड़े! यह आपकी साधना है, आप चौबीस घंटे साध रहे हैं इसे; आप समस्त तरह के विरोधी विचारों को भीतर ले जा रहे हैं। एक विचार भीतर डालते हैं, उसका विरोधी भी भीतर डाल लेते हैं; उन दोनों के भीतर बेचैनी है। एक पोलैरिटी है, एक ध्रुवीयता है; वे दोनों एक-दूसरे के साथ संघर्ष करते हैं और आप संघर्ष में पड़ जाते हैं।



सर्वसार उपनिषद 


ओशो 

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