बुद्ध को कोई गाली देता है तो बुद्ध चुपचाप सुन लेते हैं। बुद्ध के ऊपर
कोई थूक जात है तो वह चुपचाप अपनी चादर से पोंछ लेते हैं। और जिसने धूका
है, उस आदमी से कहते हैं, तमें: कुछ और कहना है? आनंद क्रोध से भर जाता
है उनका शिष्य और वह कहता है, आप क्या कह रहे हैं इस आदमी से? यह पागल है
और इसने आपके ऊपर थूका! मुझे आज्ञा दें तो मैं इसे ठीक करूं।
बुद्ध कहते हैं, उसे मैं क्षमा कर दूं क्योंकि वह नासमझ है, लेकिन तू
इतने दिन से मेरे पास है और तू बिलकुल ही मूर्च्छित व्यवहार कर रहा है! यह
आदमी कुछ कहना चाहता है, जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, इसलिए थूककर
प्रगट कर रहा है।
थूकना एक भाषा है। बहुत बार भाव गहरा होता है, आप प्रगट नहीं कर पाते,
किसी को गले लगा लेते हैं, वह एक भाषा है। कुछ इतना गहरा था हृदय में, जिसे
शब्द नहीं कह पाते, तो आप छाती से लगा लेते हैं।
तो बुद्ध कहते हैं, कुछ भाव है इसके मन में बहुत गहरा, जिसको यह शब्द से
नहीं कह पाता, थूककर जाहिर कर रहा है। बड़े गहरे क्रोध से भरा है, वह क्रोध
शब्द से पूरा नहीं होगा। इसलिए मैं इससे पूछता हूं कि और भी कुछ कहना है?
इतना कहा, यह समझा; कुछ और भी कहना है? कुछ इसकी व्याख्या भी करनी है?
वह आदमी तो बड़ा बेचैन हो गया। क्योंकि जब कोई आपके ऊपर यूके तो अपेक्षा
करता है कि अब कुछ उपद्रव होगा। लेकिन यहां एक तात्विक चर्चा छिड़ जाए कि
फना भी एक भाषा है और इस आदमी ने कुछ कहा है! तो वह आदमी थोड़ा बेचैन हुआ,
उसे थोड़ा अपराध भाव लगा होगा कि मैंने गलत आदमी पर धूक दिया। वह चला गया।
वह दूसरे दिन सुबह आया, बुद्ध के चरणों में सिर रखकर रोने लगा। उसकी आंख
से आंसू बहने लगे। उसने कहा कि मुझे क्षमा कर दें। मैं कल आपके ऊपर धूक
गया था। मुझसे बड़ी भूल हो गई। मैं पीछे पछताया। मैं रातभर सो नहीं सका।
बुद्ध ने कहा, तू बिलकुल नासमझ है। उस बात को बीते कितना समय हो गया! तब से
गंगा का कितना पानी बह गया! अब उसको तू याद क्यों रखे है? और तूने यूका
था, हमने उसे लिया नहीं था, इसलिए व्यर्थ पश्चात्ताप मत कर। तूने यूका
होगा, लेकिन हमें कोई चोट नहीं पहुंची, इसलिए तू व्यर्थ पश्चात्ताप मत कर।
और बुद्ध ने आनंद से कहा, आनंद! देख, यह आदमी फिर कुछ कहना चाहता है।
लेकिन बात इतनी गहन है कि नहीं कह पाता, तो इसने आसुओ से पैर धो डाले।
व्यक्ति जैसे ही जीवन की सामान्य धारा के ऊपर अपने को उठाना शुरू करता
है, एक बड़ी रसपूर्ण प्रक्रिया शुरू होती है। और एक बहुत मधुर और एक बहुत
मीठी यात्रा का प्रारंभ होता है, जो रोज रोज मधुर होती जाती, रोज रोज मीठी
होती जाती है, रोज रोज सुगंधित होती जाती है, और भीतर एक रस झरने लगता है।
इस यात्रा के अंत में ही अमृत की वर्षा है।
ओशो
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