अगर जीवन का सार समझना है तो मध्य में कहीं, सम्यक, संतुलित, जितना
जरूरी है बस उतना। नींद भी जितनी जरूरी है बस उतनी; भोजन भी उतना जितना
जरूरी है; श्रम भी उतना जितना जरूरी है; विश्राम भी उतना जितना जरूरी है।
और हर आदमी को खोजना है अपना संतुलन, क्योंकि इसके लिए कोई बंधी हुई कोटि
और धारणा नहीं हो सकती। क्योंकि लोग अलग-अलग हैं।
अब बूढ़े आदमी मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, नींद नहीं आती। मैं पूछता
हूं कि कितनी आती है? वे कहते हैं, बस मुश्किल से तीन-चार घंटे।
पर बूढ़े आदमी को तीन-चार घंटे पर्याप्त है। बच्चा पैदा होता है, बीस
घंटे सोता है। मरते वक्त भी तुम्हें बीस घंटे सोने का इरादा है? जन्म के
समय जरूरत है बीस घंटे की। क्योंकि बच्चे के शरीर में इतना काम चल रहा है
कि अगर वह जागेगा तो काम में बाधा पड़ेगी। बच्चे के शरीर में निर्माण हो रहा
है, उसे सोया रहना उचित है। अभी बढ़ रहा है बच्चा। गर्भ में तो चौबीस घंटे
सोता है। क्योंकि उसका जरा सा भी जाग जाना, और बाधा पड़ेगी।
जब भी तुम्हारा शरीर थका होता है और निर्माण की जरूरत होती है तब नींद
उपयोगी है। इसलिए तो चिकित्सक कहते हैं, अगर बीमारी हो और नींद न आए तो
बीमारी से भी खतरनाक नींद का न आना है। पहले नींद लाओ, बीमारी की पीछे
फिक्र करेंगे। क्योंकि आधी बीमारी तो नींद में ही ठीक हो जाएगी। तुम जब
जागे रहते हो तो तुम बाधा डालते हो। और तुम्हारी ऊर्जा बाहर की तरफ बहती
रहती है। जब तुम सो जाते हो, सारी ऊर्जा भीतर वर्तुलाकार घूमने लगती है। तो
निर्माण होता है।
बूढ़ा आदमी तो मर रहा है। निर्माण तो कब का बंद हो चुका। अब तो चीजें टूट
रही हैं। अब तो सेल नष्ट हो रहे हैं। अब तो जो भी मिट जाता है वह फिर नहीं
बनता। तो उसकी नींद कम हो गई है। स्वाभाविक है। अब उसको नींद की आकांक्षा
नहीं करनी चाहिए, कि वह सोचे कि हम जवान जब थे तो आठ घंटे सोते थे। तो तब
तुम जवान थे, तुम नहीं सोते थे आठ घंटे, जवानी आठ घंटे सोती थी। तुम बच्चे
थे, बीस घंटे सोते थे। तुम नहीं सोते थे, बचपना बीस घंटे सोता था।
और फिर हर व्यक्ति के जीवन में रोज बदलाहट होती है। तो व्यक्ति को सजग
होकर संतुलन को सम्हालना चाहिए। जड़ नियम जो बना लेता है वह हमेशा असंतुलित
हो जाएगा। क्योंकि तुम रोज बदल रहे हो। बचपन में एक नियम बना लिया; जवान हो
गए, अब क्या करोगे? जवानी में एक नियम बना लिया; अब बूढ़े हो गए, अब क्या
करोगे? नहीं, आदमी को सजग रह कर रोज-रोज संतुलन खोजना पड़ता है।
जैसे तुमने कभी किसी नट को देखा हो रस्सी पर चलते। तो वह ऐसा थोड़े ही कि
एक दफा सम्हाल लिया संतुलन और चल पड़े; बस एक दफा पहले कदम पर सम्हाल लिया,
चल पड़े। हर कदम पर सम्हालना होता है। क्योंकि हर कदम नया कदम है; हर
यात्रा नयी यात्रा है। हर पल नया है, तुम्हारा पुराने पल का जो तुमने तय
किया था वह नये पल में काम न आएगा। तो नट एक लकड़ी हाथ में लिए रहता है। अगर
बाएं जरा ही ज्यादा झुकता है तो तत्क्षण दाएं लकड़ी को झुका देता है ताकि
संतुलन हो जाए। दाएं जरा ही ज्यादा झुकने लगता है तो तत्क्षण बाएं झुक जाता
है ताकि संतुलन हो जाए। बाएं और दाएं के बीच में प्रतिपल गत्यात्मक रूप से
संतुलन को साधता है।
अतियों के बीच तुम्हें गत्यात्मक रूप से संतुलन साधना होगा। और जीवन एक
नट की ही यात्रा है। वहां दोनों तरफ खड्डे और खाई हैं। इधर गिरो तो खाई,
उधर गिरो तो खड्ड। ठीक मध्य में खड्ग की धार की तरह बारीक है रास्ता।
ताओ उपनिषद
ओशो
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