कई बार तुम्हें अड़चन होती होगी। तुम मेरे शब्द सुनते हो, ठीक वही शब्द
तुम जाकर दूसरे को कहते हो; तुम हैरान हो जाते हो कि तुमसे प्रभावित ही नहीं
हो रहा है? बात क्या है? यह भी हो सकता है, तुम मेरे शब्दों को सुधार भी
ले सकते हो, मुझसे भी अच्छा कर ले सकते हो क्योंकि मैं कोई शब्दों में बहुत
कुशल नहीं हूं; व्याकरण कोई ठिकाने की नहीं हैं तुम उसे सुव्यवस्थित कर
सकते हो; लेकिन तुम हैरान होओगे कि बात क्या है, वही मैं कह रहा हूं?
शब्द कुछ भी नहीं हैं। शब्द तो निर्जीव हैं; जीवन तो तुम्हारे भीतर से डाला जाए तो ही डाला जाता है।
बुद्ध से जो प्रभावित हुए, उन्होंने शब्द संग्रहीत कर लिए। स्वभावतः,
इतने बहुमूल्य शब्द बचाए जाने जरूरी हैं। फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उन शब्दों का
अनुस्मरण चलता है, पाठ चलता है, तुम भी थोड़े हैरान होओगे कि कबीर के वचनों
में ऐसा कुछ खास तो नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि तुम्हें कबीर का एहसास नहीं
है बुद्ध के वचनों में भी तुम्हें कुछ खास न दिखाई पड़ेगा। ऐसा क्या खास है?
बड़े कवि हुए हैं, उनके वचनों में ज्यादा कुछ है। बड़े लेखक हैं, बड़े वक्ता
हैं, उनके बोलने की कुशलता और! न तो बुद्ध, न तो कबीर, न तो मुहम्मद कोई
वक्ता हैं, न तो कोई लेखक हैं; भाषा की कुशलता है ही नहीं फिर क्यों इतने
लोग प्रभावित हुए? कैसे इतनी क्रांति घटती हुई? नहीं, कबीर नहीं हैं
क्रांति के कारण, कबीर की भाषा भी नहीं है; कबीर के भीतर जो ज्योति आकाश से
उतरी है, जो अवतरण हुआ है वही। सारा राज वहां है; सारी पूंजी वहां छिपी है
जादू की; सारा चमत्कार वहां है।
लेकिन वह तो खो जाता है कबीर के साथ; थोथे
शब्द रह जाते हैं, जैसे चली हुई कारतूस। चली हुई कारतूस को तुम सम्हाले
रहते हो। सोचते हो, “कितना बड़ा धड़ाका हुआ था! कारतूस तो वही है! सम्हाल
लो।’ लेकिन चली हुई कारतूस को सम्हाल कर भी क्या करोगे?
कुरान, बाइबिल, इंजील, तालमुद, अवेस्ता, धम्मपद सब चली हुई कारतूस हैं।
चल चुकीं, धड़ाका हो चुका, अब तुम नाहक ढो रहे हो। अब इसके बल पर तुम किसी
युद्ध में मत उतर जाना। यह चली हुई कारतूस अब किसी काम न आएगी।
इससे अड़चन होती है। इससे बड़ी अड़चन होती है। संप्रदाय शब्दों से घिर जाता
है; धर्म निःशब्द है। संप्रदाय शास्त्रों से घिर जाता है; धर्म का कोई
शास्त्र नहीं। शून्य ही उसका शास्त्र है। मौन ही उसकी वाणी है।
सुनो भई साधो
ओशो
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