कभी एक बच्चे के साथ प्रयोग करें और आप चकित हो जाएंगे। बच्चा रो रहा
है, तो न तो आप उसे डांटें, न उसे थपथपाएं, न समझाएं, शांति से उसके पास
बैठे रहें, ध्यानपूर्वक उसको देखते रहें–प्रेमपूर्वक, ध्यानपूर्वक; लेकिन न
तो उसे रोकें कि वह न रोए, न उसके सिर को थपथपा कर सुलाने की कोशिश करें;
क्योंकि वह भी तरकीब है कि वह न रोए; उसे खिलौने भी मत दें; क्योंकि वह भी
तरकीब है कि आप रिश्वत दे रहे हैं। उसका मन भी न हटाएं, कि देख, उस दरख्त
पर एक सुंदर चिड़िया बैठी है। वह करके भी आप उसको अपने नैसर्गिक मार्ग से
हटा रहे हैं। आप सिर्फ शांत, बिना क्रुद्ध हुए क्योंकि आपका क्रोध भी बच्चे
के लिए दमन हो जाएगा। आपका फुसलाना, समझाना भी उसको उसकी निसर्गता से हटाना हो जाएगा।
कितनी देर रोएगा बच्चा? थोड़ी प्रतीक्षा करें। कितनी देर रोएगा? रोने
दें। मगर यह प्रेमपूर्ण प्रतीक्षा और ध्यान जरूरी है। क्योंकि बच्चा बहुत
सचेतन होता है। आपका जरा भी ध्यान हटा, तो वह जानता है कि आप उसकी उपेक्षा
कर रहे हैं। और आपकी उपेक्षा उसके लिए दमन बन जाती है।
आप शांत, प्रेमपूर्ण होकर बच्चे पर ध्यान भर देते रहें, तो आप चकित
होंगे, एक अनूठा अनुभव आपको होगा और अनुभव यह होगा कि जब तक आप बच्चे को
प्रेमपूर्वक ध्यान देंगे, वह दिल खोल कर रोएगा, चीखेगा। जैसे ही आप ध्यान
हटाएंगे; वैसे बच्चा खयाल रखेगा कि आप ध्यान दे रहे हैं या नहीं दे रहे
हैं। आप ध्यान देते जाएं प्रेमपूर्ण बच्चा थोड़ी देर रोता रहेगा। जोर से
रोएगा, चिल्लाएगा फिर हलका हो जाएगा, मुस्कुराने लगेगा, प्रसन्न हो जाएगा
और ऐसी प्रसन्नता बच्चे के चेहरे पर आएगी जो राजनीतिक नहीं है। वह आप को
प्रसन्न करने के लिए नहीं हंस रहा है। अब यह हंसी उसके दुख के विसर्जन से आ
रही है। अब वह हलका हो गया है।
अब तो आप जानते हैं कि अगर मैं चिल्लाया, तो कहीं मेरे गांव में खबर न हो जाए कि यह आदमी वहां रो रहा था। कहीं मेरी पत्नी न देख ले कि अरे तुम, जो इतने दबंग, और इस भांति रो रहे हो! वह जो हमने जाल बुन रखा है अपने आसपास, उससे एक झूठी छाया निर्मित हो गई है, एक शैडो परसनालिटि बन गई है। वह जो हमारे पास झूठे व्यक्तित्व की एक धारा चारों तरफ हमारे खड़ी है, वह जो हमारी छाया है–वह जब हम नहीं हंसना चाहते, तब हंसाती है; जब नहीं रोना चाहते, तब रुलाती है; जब रोना चाहते हैं, तब मुस्कुराती है–वह सब विक्षिप्त है। वह चौबीस घंटे हमारे साथ है, और वह हमारी छाती पर बैठ गई है। इसको हम अहंकार कहें तो हर्ज न होगा।
मनसविद कहते हैं कि इस छाया के कारण ही पूरी पृथ्वी पागल होती जा रही है। जितना सभ्य समाज हो, उतना पागलपन बढ़ जाता है। और जितना असभ्य समाज हो, उतना कम होता है पागलपन। ठीक असभ्य समाज में पागल होते ही नहीं। सभ्यता के साथ विक्षिप्तता आती है। शायद सभ्यता ही बहुत गहरे में विक्षिप्तता का मूल है, नींव है, आधार है, जड़ है।
समाधी के सप्त द्वार
ओशो
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