एक व्यक्ति मेरे पास अभी आए, उन्होंने कहा कि संतोष चाहिए जीवन में… संतोष चाहिए जीवन में, लेकिन मैं किसी पर विश्वास नहीं कर सकता हूं। तो आपके पास आया हूं विश्वास मेरा आप पर बिलकुल नहीं है; कोई संतोष का रास्ता बताएं। मैंने उनसे कहा मैं रास्ता बताऊंगा, लेकिन विश्वास तो उस पर आएगा नहीं! तो मैंने उनसे कहा तुम संतोष खोजना छोड़ दो। तुम खोज तो असंतोष रहे हो, क्योंकि जो आदमी कहता है मुझे किसी पर भरोसा नहीं है, वह संतोष नहीं पा सकता, क्योंकि जिसे गैर- भरोसा रखना है, उसे सदा ही सजग रहना पड़ेगा, डरा हुआ रहना पड़ेगा, भयभीत रहना पड़ेगा–वह सदा खतरे में है, क्योंकि चारों तरफ जो भी हैं, सब पर अविश्वास है, कहीं कोई ट्रस्ट नहीं। अगर ऐसा आदमी ठीक-ठीक विकास करे तो वह मकान के भीतर नहीं बैठ सकता, क्योंकि मकान पता नहीं कब गिर जाए; वह मकान के बाहर खड़ा नहीं हो सकता, क्योंकि पता नहीं क्या दुर्घटना हो जाए। वैसा आदमी अगर गैर- भरोसे को बढ़ाता चला जाए तो अपना भी भरोसा नहीं कर सकेगा।
मैं एक युनिवर्सिटी के बहुत बुद्धिमान प्रोफेसर को जानता हूं जिनकी आखिर में हालत यह हो गई कि वे अपने पर भरोसा नहीं कर सकते थे। तो कमरे में छुरी-कांटा या ऐसी कोई चीज नहीं रख सकते थे रात को, क्योंकि कब उठा कर वे छाती में भोंक लें, इसका उन्हें भरोसा नहीं रहा था। तो या तो रात उनके कमरे में कोई रहे–लेकिन उसका भी उनको भरोसा नहीं आता था–या बाहर… रहे तो कमरे में कोई चीज नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि खुद का भी भरोसा नहीं था। असल में जो किसी का भी भरोसा नहीं करता, एक दिन वह घड़ी आ ही जाती है कि खुद का भी भरोसा नहीं कर सकता। असल में भरोसा ही नहीं कर सकता, असली सवाल यह है… खुद का और दूसरे का नहीं है। फिर संतोष की कोई संभावना नहीं।
संतोष तो उस व्यक्ति को फलित होता है, जो भरोसे की स्थिति बिलकुल न होने पर भी भरोसा कर सकता है। एक छोटा सा बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़ कर जा रहा है। उसके संतोष की कोई सीमा नहीं है, हालांकि पक्का नहीं है कि बाप उसको रास्ते पर नहीं गिरा देगा, कोई पक्का नहीं है कि बाप खुद नहीं गिर जाएगा; कोई पक्का नहीं है, क्योंकि बाप हो सकता है खुद ही लड़के का हाथ जोर से इसीलिए पकड़े हो कि सहारा रहे। लेकिन लड़का संतुष्ट है...
सर्वसार उपनिषद
ओशो
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