मुझे एक इजिप्तियन फकीर झुन नुन के बारे में एक कहानी याद आती है :
झुन नुन सदा भिखारी के वेश में घूमता रहता था, और राजे महाराजे भी उसके
शिष्य थे। एक बहुत अमीर शिष्य ने उससे पूछा, ”आप यह भिखारी की तरह क्यों
घूमते रहते हो? आप क्यों जनसाधारण से मिलते जुलते हो? यह बात कुछ ठीक नहीं
है, क्योंकि आप एक महान गुरु हैं। ”कहते हैं कि झुन नुन ने कहा, ”एक गुरु
अपने स्वभाव से ही गुरु होता है, इसलिए वह जहां भी जाता है, वह वहीं पर
गुरु है, जहां कहीं भी हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। यदि वह भीड़ में भी खड़ा
है तो भी वह गुरु है और वहां? वह काम करता होता है। और भीड़ सिर्फ उसकी
उपस्थिति से ही रूपांतरित होती रहती है मात्र उसकी उपस्थिति से ही। ”
ऐसा कहते हैं कि कुरान में मुहम्मद ने कहा है कि किसी भी गुरु को किसी
भी अमीर आदमी के घर नहीं जाना चाहिए। यदि कोई अमीर आदमी उससे मिलना चाहता
है तो उसे गुरु के पास आना चाहिए। एक सूफी फकीर बायजीद से पूछा गया, जो कि
अक्सर अमीर लोगों के घर जाया करता था और बादशाह के महल में भी जाता था,
उससे पूछा गया, ”तुम पैगंबर के उपदेश के विरुद्ध क्यों जाते हो? मुहम्मद ने
कहा है कि किसी भी गुरु को अमीर आदमी के घर नहीं जाना चाहिए, उसकी कोई
जरूरत नहीं है। यदि अमीर आदमी की जरूरत हो तो उसे ही गुरु के चरणों में आना
चाहिए। लेकिन आप तो महल में भी चले जाते हैं, अत: क्या बात है? क्या आप
पैगंबर के खिलाफ हैं, या कि आपका इस बात में विश्वास नहीं है?”
बायजीद ने कहा, ”तुम्हें सही बात का पता नहीं है। मुहम्मद सही हैं और
मैं उनका उपदेश मानता हूं, और उसी के अनुसार कर रहा हूं। लेकिन चाहे गुरु
बादशाह के महल में जाए, और चाहे बादशाह गुरु के घर आए, सदा गुरु ही दूसरे
को बदलता है। इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। ” बुनियादी रूप से तो तुम ही
गुरु के पास आते हो। चाहे गुरु महल में जाए और चाहे बादशाह गुरु के झोपड़े
में आए, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। सदा बादशाह ही गुरु के पास आता है
क्योंकि वही रूपांतरित होता है। वही रूपांतरित होगा।
बायजीद कहता है कि यह गुरु की प्रकृति है कि वह दूसरों को बदलता है,
इसमें कोई प्रयास नहीं है। गुरु के द्वारा कुछ भी नहीं किया जाता है, केवल
उसकी उपस्थिति… और यदि वह कुछ करता भी नजर आता है तो वह भी एक तरकीब है,
क्योंकि तुम अभी न करने की भाषा नहीं समझते। तुम केवल प्रयास की भाषा ही
समझ सकते हो। इसलिए वह तुम्हारे लिए एक भाषा ढूंढता है। यदि तुम उसकी भाषा
नहीं समझते तो क्या हुआ, वह तो तुम्हारी भाषा भलीभांति समझ सकता है। यदि
तुम उसे नहीं भी समझ सको तो क्या हुआ, वह तो तुम्हें अच्छी तरह समझ सकता
है।
इसीलिए गुरु तुम्हें वही देता है जो तुम समझ सकते हो। और धीरे धीरे
तुम्हारी समझ बढती जाती है और एक दिन जब तुम उस बिंदु पर आ जाओगे जबकि उसकी
भाषा समझ सकोगे तो तुम हंसोगे, क्योंकि उसने कुछ भी नहीं किया है। लेकिन
उस क्षण तुम उसके प्रति कृतज्ञता के भाव से भरे होगे, क्योंकि बिना कुछ
किये भी उसने तुम्हें रूपांतरित कर दिया।
केनोउपनिषद
ओशो
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